इस इश्क़ मोहब्बत की - भूले बिसरे गीत

 


ये इस सिरीज़ का गोल्डन जुबिली एपिसोड है, तो मैं चाहता था कोई खास गीत चुनूँ। अपनी गीतों की लिस्ट में घूमते-घामते एक गीत ने मुझे हुक किया। हो सकता है आपका विचार कुछ अलग हो लेकिन ये गीत मुझे बहुत मीठा लगता है, इसकी धुन, इसकी गायकी चाशनी की तरह अंदर उतरती जाती है। 

कभी-कभी किसी बी-ग्रेड फ़िल्म में भी ऐसा गीत निकल आता है कि विश्वास नहीं होता इतना अद्भुत काम ऐसी फ़िल्म में हुआ है। दर असल जिस गीत की हम बात करने जा रहे हैं उसके संगीतकार हैं “सोनिक-ओमी”। बहुत कम लोग वाकिफ़ होंगे इस जोड़ी से मगर 60 के दशक में ऐसा नहीं था। बहुत से संगीतकारों के सहायक रहे हैं, जिनमें रोशन साहब के तो ख़ास थे, रोशन साहब अपनी धुन सबसे पहले ओमी जी को सुनाते थे और पूछते थे गाना चलेगा या नहीं? इन्होने 1966 से स्वतंत्र रूप से बतौर संगीतकार काम करना शुरू किया और पहली ही फ़िल्म के संगीत ने तहलका मचा दिया। उसके बाद 2-3 सफलताएँ और मिलीं तो इन्हें लगा अब अपना मुक़ाम बन गया है लेकिन किस्मत अपने वजूद का सबूत ऐसी ही कहानियों में देती है। प्रतिभा थी, सफलता भी थी लेकिन काम फिर भी न आना था, न आया। अच्छे बैनर के इंतज़ार में कुछ समय खाली बैठे रहे पर क्या करें, घर बार भी तो देखना पड़ता है। वैसे ही इन दोनों ने इतना बुरा वक़्त देखा हुआ था कि जानकर आपकी रूह कांप जाये (इनके बारे में विस्तार से मैंने अपनी किताब “सिनेमा सप्तक” में लिखा है), उस पर मास्टर सोनिक जन्म से अंधे थे। ये चाचा भतीजा की जोड़ी थी, चाचा सोनिक और भतीजा ओमी। 

तो साहब एक बी ग्रेड फ़िल्म का ऑफर स्वीकार कर लिया, क्योंकि काम तो करना था। सोचा जब तक बड़ा कुछ नहीं मिले यही कर लेते हैं पर फ़िल्म इंडस्ट्री में एक बार ठप्पा लग जाये तो मिटाना बहुत मुश्किल होता है। वही इनके साथ हुआ, इन पर बी ग्रेड का ठप्पा लग गया और फिर ये जोड़ी उन्हीं फिल्मों की हो कर रह गई। तो ऐसी ही एक बी ग्रेड फ़िल्म थी 1979 में आई “जुल्म की पुकार” जिसके हीरो थे “परीक्षित साहनी” और हीरोइन “रंजीता”। और जिस गीत की मैं बात कर रहा हूँ वो है – 

“इस इश्क़ मोहब्बत की

कुछ हैं अजीब रस्में

कभी जीने के वादे कभी मरने की कसमें”

इसे लिखा है “वर्मा मलिक” ने, गाया है सुरों के जादूगर “रफ़ी साहब” ने और उनका साथ दिया है “चंद्राणी मुखर्जी” ने। रफ़ी साहब तो जैसे घर से शहद पी कर चले थे, कि आज तो जो गीत गाऊँगा उसमें शहद घोल दूँगा। इस गीत में जो कुछ जादू है उसमें धुन का कमाल तो है ही पर रफ़ी साहब की गायकी का ज़्यादा है। जैसे जब वे “रस्में” गाते हैं तो इस एक शब्द में इतने सुर सहेज लेते हैं कि सुनकर मज़ा आ जाता है। आपको फर्क वहीं पता चल जाएगा जब वही पंक्ति चंद्राणी मुखर्जी दोहराती हैं। बेसुरी नहीं होतीं लेकिन वो जादू नहीं जागता जो रफ़ी साहब जगा देते हैं। अगर इस गीत में चंद्राणी की जगह लता जी होतीं तो यक़ीन मानिए ये इस दुनिया के पार का गीत होता। इस धुन की नज़ाकत को रफ़ी की मुलायमियत के साथ लता की दैवीय आवाज़ चाहिए थी। चंद्राणी मुखर्जी की आवाज़ भी अच्छी है लेकिन हल्का सा तीखापन है उसमें। 

सोनिक ओमी चूंकि बड़े-बड़े संगीतकारों के संगीत संयोजक रह चुके थे तो उनका अपना संगीत संयोजन अच्छा ही होता था। ढोलक की रवानी इस गीत की ज़रूरत थी जो बहुत मधुरता से बजी है, बिना लाउड हुए। 

गीत सिर्फ सुनने का है, देखने का नहीं है। परीक्षित साहनी जवानी में भी हीरोइन के पिता ही लगते थे। ऐसा लगता है जैसे बाप बेटी गाना गा रहे हैं। जैसे-जैसे बोल आते हैं वैसा ही सीन बना कर शूट कर लिया है। 

“कभी इंतज़ार करते बरसात की रातों में”

तो रात का सेट बनाया जिसमें बरसात हो रही है और परीक्षित साहनी काली बानियान और पैंट पहन कर इंतज़ार कर रहे हैं। लो जी जो जो लिखा है इस लाइन में सब हो गया। 

फ़िल्म के निर्देशक का नाम है “दिनेश-रमनेश”, ये शायद जोड़ी होगी। इनके बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। उसी दौर में इन्होने 3-4 फिल्मे बनाई थीं। 

आपने सुना तो होगा ही गीत, नहीं सुना हो तो सुनिए और दोनों ही स्थितियों में कमेंट कर के ज़रूर बताइये। लिंक कमेंट बॉक्स में है, गीत की भी और मेरी किताब की भी 😉

आपकी हौसला अफजाई से 50 गीतों के बारे में लिख चुका हूँ, और नए पाठक जुड़ रहे हैं। अगर आपको ये पोस्ट अच्छी लगी और अब तक आप मुझसे जुड़े नहीं हैं तो कृपया फॉलो करें, क्योंकि अब ज़्यादा frequently ये सिरीज़ पोस्ट करूंगा। 

एपिसोड – 50

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