मुंज्या - एक हँसोड़ भूत

 


एक अरसे के बाद सिनेमा हॉल में फ़िल्म देखी और मेरी ये राय और पुख्ता हुई कि फ़िल्म थिएटर में ही देखने की चीज़ है। चाहे आप अपने घर में 56 इंच का टीवी लगा लें पर फ़िल्म देखने का समग्र अनुभव सिर्फ़ सिनेमा हॉल ही दे सकते हैं। इसीलिए इस विषय पर मैंने शॉर्ट फ़िल्म बनाई थी “बागली टॉकीज”। 

बहरहाल, सिनेमा हॉल का आनंद अपनी जगह लेकिन जो सिनेमा देखा जा रहा है वो आनंद दायक है कि नहीं ये भी महत्वपूर्ण है। क्योंकि थोड़ी बहुत कमियाँ तो सिनेमा हॉल में छुप जाती हैं। आज हम देखेंगे कि मैंने जो फ़िल्म देखी “मुंज्या”, वो आनंद दायक रही या नहीं।

तो मुंज्या एक हॉरर कॉमेडी है जो आजकल बॉलीवुड में चलन में है। इस genre की तरफ़ निर्माताओं का ध्यान “स्त्री” की सफलता के बाद गया और तब से कुछ अच्छी और कुछ खराब फ़िल्में इस श्रेणी में आई हैं। “स्त्री” बहुत अच्छी फ़िल्म थी इसमें कोई शक़ नहीं। 

मुंज्या एक मराठी लोककथा पर आधारित है जिसके अनुसार अगर कोई व्यक्ति अपने उपनयन संस्कार में हुए मुंडन के 10 दिनों के अंदर मर जाता है तो वो ब्रह्म राक्षस बन जाता है जिसे मुंज्या कहा जाता है। ये मुंज्या बच्चा ही होता है इसलिए बचकानी हरकतें करता है और अक्सर इस पर शादी का भूत सवार रहता है, याने भूत पर भूत। तो इस कहानी की शुरुआत होती है 1952 से जहां एक 12-13 साल का बच्चा अपने से 7 साल बड़ी मुन्नी से शादी करना चाहता है। और उस उम्र में भी जुनूनी प्रेमी होता है। जब लड़की की शादी दूसरे लड़के से हो रही होती है तो चिंटूकवाड़ी में एक पीपल के पेड़ के नीचे स्थित देव की पूजा करता है, और काला जादू करने की कोशिश करता है ताकि मुन्नी उसकी हो जाये। वो वहाँ वहाँ अपनी बहन के साथ झूमा-झटकी में मारा जाता है। उसके मुंडन संस्कार को अभी 10 दिन नहीं हुए थे तो ये तय था कि वो राक्षस बनेगा। पंडित लोग उस पेड़ पर मंत्रोच्चार के साथ धागे बांध देते हैं ताकि वो उस पेड़ से बंधा रहे। 

इसके आगे की कहानी नहीं बताऊंगा, वो आप खुद देखिये। 

यहाँ तक फ़िल्म promising लगती है पर जैसे ही फ़्लैशबैक से वर्तमान में आती है, लड्खड़ाने लगती है। शुरुआत में ऐसा लगा था जैसे “तुंबाड़” जैसा कुछ देखने को मिलेगा लेकिन अफ़सोस! तुंबाड़ वो फ़िल्म है जो कभी-कभी ही बनती है। फ़िल्म के मुख्य किरदार बिट्टू की ही तरह फ़िल्म भी इधर-उधर डोलती रहती है। एक हॉरर-कॉमेडी में डर भी लगना चाहिए और हँसी भी आनी चाहिए पर यहाँ समस्या अजीब ही पैदा हो गई कि डर लगते-लगते रह जाता है और हँसी आते-आते रह जाती है। मतलब कुछ-कुछ होता है पर हो नहीं पाता। मतलब समझ रहे हैं ना आप? मुंज्या वीएफ़एक्स से बनाया गया है और बहुत बढ़िया बनाया है पर एक बार सिहरन पैदा करके वो जोकर हो जाता है, और डर फ़िल्म से हमेशा के लिए विदा हो जाता है। उसके बाद फ़िल्म हॉरर तो नहीं रह जाती पर कॉमिक होने के लिए भी संघर्षरत रहती है। पूरी फ़िल्म में सिर्फ एक ही बार खुलकर हँसी आई। बाकी समय लगता रहा कि कोई गुदगुदाने की कोशिश कर रहा है पर गुदगुदी हो नहीं रही है, बावजूद इसके कि मन ने अपने आप को हंसने के लिए तैयार कर रखा था। 

एक sequence मुझे बड़ा अजीब लगा जब बिट्टू का सरदार दोस्त उसे भूत से पीछा छुड़ाने के लिए एक क्रिश्चियन बाबा के पास ले जाता है, हाँ भाई ऐसी दुकानें हर धर्म में खुली हुई हैं। यूं हमारे जन मानस में अंग्रेजों की छवि आधुनिक होने की बनी हुई है पर उधर भी हेलेलूइया चलता है। बहुत से फर्जी पादरी वहाँ भी हैं जो ऐसे फूँक मार कर बीमारियाँ ठीक करते हैं। ये अलग बात है कि हमारे यहाँ आजकल ऐसे ढोंगियों की बाढ़ आई हुई है, भाई खर-पतवार अनुकूल मौसम पाकर ही बढ़ती हैं। ख़ैर, तो इस किरदार को लेकर भी लिखने वाले confused थे कि ये फ्रॉड है या वाकई कुछ जानता है पर...अरे तेरे की ये तो मुंज्या के बारे में सब जानता है। तो फिर सवाल हमारे मन में अटक जाता है, ये साला ढोंगी है या सिद्ध है? मैंने ये भी सोचा कि मराठी मानुस और सरदार हेलेलूइया के पास क्यों जाएँगे जिसका जवाब बाबा खुद देता है कि "भूत का कोई religion नहीं होता"।

प्रॉडक्शन वैल्यू बहुत बढ़िया है, आख़िर खर्च भी अच्छा-खासा किया है। 30 करोड़ के बजट में बनी इस फ़िल्म का आधा बजट वीएफ़एक्स पर खर्च हुआ है। और वीएफ़एक्स वाकई बहुत अच्छे बने हैं। फ़िल्म में मोना सिंह को छोडकर कोई भी जाना-माना चेहरा नहीं है और मोना सिंह भी कमर्शियल वैल्यू नहीं रखती हैं पर अभिनय सभी का अच्छा है। और शर्वरी वाघ तो बेहद खूबसूरत लगी हैं। लंबे समय बाद भारतीय मानकों वाली खूबसूरती परदे पर देखी है। शर्वरी को “बंटी और बबली 2” के लिए best debut का फिल्मफेयर पुरस्कार मिल चुका है। 

सभी कुछ अच्छा होने के बावजूद फ़िल्म अपनी राइटिंग की वजह से कमजोर है। स्क्रिप्ट पर और मेहनत की जानी थी। कई घटनाएँ जबर्दस्ती थोपी हुई लगती हैं और वो भी फ़िल्म के टर्निंग पॉइंट्स हैं। बिट्टू का चिंटूकवाड़ी जाना बिलकुल लॉजिकल नहीं लगा, उसे वहाँ पहुंचाने के लिए ये सीन लिखा गया है ऐसा साफ पता चलता है। कई जगह जंप भी लगता है। दर असल फ़िल्म कन्फ़्यूज्ड रहती है कॉमेडी और हॉरर के बीच और इन दोनों भावों को एक साथ साधने की कोशिश में कुछ भी नहीं बन पाती। स्त्री इन मायनों में एक पर्फेक्ट फ़िल्म थी, उसमें हॉरर sequence डराने के लिए थे और बाकी का समय कॉमेडी के लिए। उससे ये हुआ कि भूत का मज़ाक नहीं बना, मुंज्या भूत को जोकर में परिवर्तित कर देती है और यहीं उसका बैलेन्स गड़बड़ हो जाता है। फ़िल्म डराना भी भूत से ही चाहती है और उसी से हँसाने की भी कोशिश करती है। अंत में एक मैसेज देने की कोशिश भी करती है कि “कोई तुम्हें तभी तक डरा सकता है जब तक तुम डरते हो”, मुझे अचानक माननीय की याद आ गई। पर ये मैसेज भी उस ईंटेंसिटी से नहीं पहुंचा जिससे पहुँचना चाहिए था।

कोई भी फ़िल्म सफल होती है अगर देखने के बाद घंटों दिमाग का एक कोना वो पकड़ कर रखे, और वो उसमें उलझा रहे लेकिन मुंज्या देखने के दो घंटे बाद मैं बिलकुल भूल चुका था कि मैं फ़िल्म देखकर आया हूँ। अपने कोई footprints फ़िल्म ज़हन पर नहीं छोडती। 

संगीत सचिन-जिगर का है जो हमेशा की तरह चिढ़ाता है। अच्छा, इस जोड़ी की के खास बात ये है कि इन लोगों ने हिन्दी फ़िल्म संगीत कभी सुना ही नहीं है, ये लोग आर डी बर्मन तक को नहीं जानते। ऐसा इन्होंने गर्व के साथ एक इंटरव्यू में बताया था। तभी ऐसा सरदर्द संगीत बनाते हैं। 

कुल मिलाकर फ़िल्म ठीक-ठाक है, न बहुत अच्छी है, न ही खराब है। एक बार देखी जा सकती है। मैं ऐसा नहीं कहता कि आपको भी मज़ा नहीं आएगा, आ भी सकता है क्योंकि जैसा मैंने कहा कि फ़िल्म अच्छे और बुरे के बीच की लाइन पर खड़ी है। वैसे फिल्म अप्रत्याशित रूप से हिट हो गई है, इसके इतने हिट होने की उम्मीद किसी ने भी नहीं की थी। 

#Munjya #MunjyaReview #SharvariWagh #SharwariWagh #horrorFilm #comedyfilm #horrorcomedy  


टिप्पणियाँ

लोकप्रिय पोस्ट