बासु चटर्जी - मासूम फिल्मों के रचियता



कुछ दिनों पहले फिल्म "शौकीन" देखी, पुरानी वाली जिसमें अशोक कुमार, उत्पल दत्त, ए के हंगल, मिथुन चक्रवर्ती और रति अग्निहोत्री थीं।

मुझे याद है, पहले दूरदर्शन ने लेट नाइट शो स्टार्ट किया था, जिसमें ऐसी फिल्में दिखाई जाती थीं जिनमें थोड़ा सा adult content होता था। इस फिल्म को उस जमाने में इसी श्रेणी में रखा गया था, हालांकि आज के दौर की फ़िल्मों से तुलना करें तो ये बिलकुल पवित्र फिल्म है। तो साहब, हम थे छोटे से बच्चे जो बहुत कोशिश करके भी 10 बजे का समय पार नहीं कर पाते थे पर फिल्में देखने का चस्का जबर्दस्त था,और आकर्षण था मिथुन चक्रवर्ती का, सो उनींदी अवस्था में थोड़ी बहुत देखी थी।

इस बार बाहोशोहवास में पूरी फ़िल्म देखी, और देख कर कायल हो गया निर्देशक बासु चटर्जी का। फ़िल्म मेकिंग में सादगी क्या होती है ये देखना है तो इनकी, या इनकी ही तरह के जो 2-3 और फ़िल्मकार थे, उनकी फिल्में देखिये।

कोई ताम-झाम नहीं, थोड़ी सी locations और थोड़े से कलाकार, पर आपको ख़याल ही नहीं आता कि कहीं कोई कमी है। थोड़े से budget में कहानी कह दी गई, और इस अंदाज़ से कही गई कि वाह!

शौकीन का जो विषय है उसे अगर सही तरीके से हैंडल न किया जाये, तो उसके vulgar हो जाने का पूरा खतरा है, पर ऐसा नहीं होने दिया गया। इसी फ़िल्म की रिमेक भी आई थी कुछ ही सालों पहले। अगर उसे देखें तो आपको समझ आएगा कि एक ही कहानी गुदगुदा भी सकती है और जुगुप्सा भी पैदा कर सकती है, निर्भर करता है बनाने वाले पर।

इसी के साथ एक और फ़िल्म मुझे याद आती है - "चमेली की शादी"; जिसे मैं अनगिनत बार देख चुका हूँ और अब भी अनगिनत बार देख सकता हूँ। कॉमेडी क्या होती है वो इस फिल्म को देख कर सीखा जा सकता है। कोई भी किरदार आपको हँसाने की कोशिश नहीं कर रहा, वे सब अपने आप में पूर्णतः गंभीर हैं, लेकिन आपको पूरे समय गुदगुदी होती है।

बतौर फ़िल्मकार मैं शुरू से ऋषिकेश मुखर्जी का कायल रहा हूँ और उनके मध्य मार्ग का ही फ़ालोवर हूँ। अगर कभी मौका मिला तो उसी धारा का सिनेमा बनाना चाहूँगा। सिनेमा हो, साहित्य हो या कोई और कला सब मानवीय भावनाओं के खूबसूरत प्रदर्शन करने का ही जरिया है, उसकी वीभत्सता उसका भ्रष्ट हो जाना है।

फ़िल्म आम आदमी का माध्यम है लेकिन इससे इसे बनाने वालों की ज़िम्मेदारी ख़त्म नहीं हो जाती। सबसे ज़्यादा पसंद किए जाने वाला माध्यम होने की ही वजह से सबसे ज़्यादा प्रभाव डालने वाला माध्यम भी है। साहित्य में भी एक लुगदी साहित्य होता है और एक स्तरीय होता है। सिनेमा लुगदी की तरफ चला गया है जबकि उसमें साहित्य से भी आगे निकल जाने की पूरी संभावनाएँ हैं। ऐसा कोई और माध्यम नहीं है जिसमें सभी इंद्रियों को प्रभावित करने की क्षमता हो।

पुराने दौर में फ़िल्मकार अपने ऊपर सामाजिक ज़िम्मेदारी को समझते थे वरना अंधेरी गुफाएँ 21वीं सदी की ही देन नहीं हैं, तब भी हुआ करती थीं। अब सिर्फ गुफाएँ हैं, स्वच्छ आसमान परदे से नदारद है। हर नई फ़िल्म, नई सिरीज़ और ज़्यादा वीभत्स होने की कोशिश कर रही है। गंदगी को ढूँढ-ढूँढ कर दिखाया जा रहा है।

बासु चटर्जी उन कुछ फ़िल्मकारों में से हैं जिन्होने फ़िल्मों को साहित्य तक ले जाने की कोशिश की है। उनकी फ़िल्मों की फेहरिस्त देखेंगे तो पाएंगे घोर व्यावसायिक क्षेत्र में भी वे काफी काम करने, और वो भी अच्छा काम करने में सफल रहे हैं। ऐसे ही कुछ लोग होते हैं जो कला को जीवित रखते हैं।

उनकी कुछ फ़िल्मों के नाम देखिये, शायद बहुत सी आपने देखी हों –

राजनीगंधा, सारा आकाश, चितचोर, छोटी सी बात, बातों बातों में, खट्टा-मीठा, एक रुका हुआ फैसला, शौकीन, चमेली की शादी।

अगर ये फिल्में आपने नहीं देखी हैं तो ज़रूर देखिये।

बासु दा की 4 जून को पुण्यतिथि थी, उन्हें हमारी ओर से हार्दिक श्रद्धांजली!

#BasuChatterjee #Shaukeen #Tribute

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