आवेशम - फ़हाद फ़ाज़िल का एक और शाहकार


 

"कोई नहीं है टक्कर में"

मुझे नहीं लगता फ़हाद फ़ाज़िल को टक्कर देने लायक कोई अभिनेता फिलहाल है। मैं कल तो जबरा फ़ैन हो गया जब "आवेशम" देखी। 

बस यूं ही लगा ली थी पर फिर पूरी देखकर ही दम लिया। 

जादू है इस अभिनेता में। हमें भाषा समझ नहीं आती, subtitle से काम चलाते हैं तब भी ये आलम है। इस स्थिति में अभिनय का एक पूरा पहलू तो आपकी पहुँच से बाहर रहता है "डाइलॉग डेलीवेरी", सोचिए अगर वो भी समझ आने लगे तो ये अभिनेता कितने कमाल का है। 

ट्रांस, मामन्नन और उसके बाद ये हाल ही में देखी हुई तीसरी फिल्म है फ़हाद की, और हर फिल्म के बाद मैं और और ज़्यादा फ़ैन होता गया। 

मामन्नन में भी gangster थे और इसमें भी हैं पर दोनों किरदारों में ज़मीन आसमान का अंतर है। और ये अंतर साफ समझ आता है, यही तो अभिनेता की versatility होती है। 

इस फ़िल्म में उन्होंने एक डॉन का किरदार निभाया है जो अंदर से कोमल भी है, उसे प्यार नहीं मिला कभी और इसीलिए कॉलेज के कुछ लड़के उसे मिलते हैं तो उनसे दिलो-जान से जुड़ जाता है। 

फ़हाद से अलग अगर बात करें तो फ़िल्म का बिषय भी अनूठा है। तीन लड़के हैं जो कॉलेज में नए आते हैं। seniors की रैगिंग में उन्हें बुरी तरह पीटा जाता है। इसका बदला लेने के लिए इनमें से एक ये प्लान करता है कि किसी लोकल गुंडे से दोस्ती की जाये और उससे seniors को पिटवाया जाये। दर असल जब हम किसी परिस्थिति में कमजोर होते हैं तो यही कल्पनाएँ दिमाग में आती हैं, काश कोई ताकतवर दोस्त होता तो ऐसा कर देते, वैसे कर देते। यही साइकॉलजी पकड़ कर इस कहानी को विस्तार दिया गया है, कि ऐसा अगर हो ही जाये तो आगे क्या होगा। तीनों संयोग से "रंगा" से मिलते हैं और अच्छा संबंध बन जाता है। 

आगे की कहानी आप खुद देखिये, बहुत मज़ा आएगा। फ़िल्म ह्यूमर से भरपूर है पर ये ह्यूमर भी आम साउथ फिल्मों जैसा ओवर द टॉप नहीं है जिसमें एक कमेडियन ऊटपटाँग हरकतें करता है, बल्कि बहुत ही सटल और situational है।  रंगा की गैंंग बहुत बड़ी है पर गुंडों को भी humorous दिखाया गया है। 

कमी बस इतनी है कि एक समय के बाद खींची हुई लगने लगती है, एस्टब्लिश हो जाने के बाद कहानी आगे बढ्ने में थोड़ा ज़्यादा समय ले लेती है। थोड़ी सी और एडिट करते तो और भी बेहतर होती पर फिर भी फ़िल्म बेहतरीन है। एक मसाला फ़िल्म कैसे बनाई जाये अब बॉलीवुड को मलयालम से सीखना चाहिये। मलयालम सिनेमा बहुत बहुत आगे निकल गया है। जहां बॉलीवुड एक बार फिर अपनी बेसिरपैर की 80 के दशक की कहानियों पर लौट रहा है, मलयालम सिनेमा देश का सबसे अच्छा कंटैंट रच रहा है और उसके पास मोहन लाल, ममूटी और फ़हाद फ़ाज़िल जैसे कद्दावर अभिनेता हैं जो सिर्फ अपनी छवि के इर्द-गिर्द ही नहीं घूमते बल्कि कोई भी प्रयोग करने से नहीं हिचकिचाते। 

फ़िल्म amazon prime पर उपलब्ध है, हिन्दी में नहीं है लेकीन subtitles के साथ ही देख लें। 

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