बँटवारा - उस दौर की फ़िल्मों में एक बेहतर फ़िल्म


 

एक चीज़ के लिए बँटवारा की तारीफ़ निश्चित रूप से की जानी चाहिए कि राजस्थान को बहुत खूबसूरती से capture किया है। लॉन्ग शॉट्स बहुत खूबसूरत लगते हैं और फ़िल्म को भव्यता देते हैं। ये भव्यता इस फ़िल्म की ज़रूरत भी थी। 

आज किसी नई फ़िल्म की बजाय 1989 में चले चलते हैं और बँटवारा की बातें कर लेते हैं। इसलिए क्योंकि कल यही फ़िल्म देखी मैंने। मैं अक्सर अपने बचपन में देखी हुई फ़िल्में देखने की कोशिश करता हूँ, 80s की फ़िल्में, जिन्हें देखकर मैं कई दिनों तक उन फ़िल्मों के नशे में रहता था। ज़ेहन पर अमिताभ, मिथुन, धर्मेंद्र वगैरह छाए रहते थे, लेकिन हर बार कुछ देर में बोर होकर बंद कर देता हूँ। पर इस बार मैं बोर नहीं हुआ, हालाँकि बहुत सी बातें अब हास्यास्पद लगती हैं, जिनके बारे में मैंने बहुत सी पोस्ट्स भी की थीं, पर उस दौर के चलन को देखते हुए उन्हें नज़रअंदाज़ किया जाना चाहिए। तब न फ़िल्मकार इतना ध्यान देते थे और दर्शक तो कुछ जानते ही नहीं थे। 

तो बँटवारा मुख्यतः कहानी है ऊंच-नीच की, दोस्ती की, परिवार की। एक ज़मींदार परिवार है, जिसका मुखिया बड़ा ठाकुर (शम्मी कपूर) है, जिनकी पत्नी आशा पारेख है जो तीसरी कसम में उनकी गर्ल फ्रेंड थी, बाद में उन्होंने शादी कर ली जिससे दो बेटे विजेंद्र घाडगे और मोहसिन ख़ान हुए। ठाकुर ने पहले भी एक शादी की थी जिससे उनका बेटा विनोद खन्ना उर्फ़ विकी है। विनोद खन्ना का चड्डी बडी है धर्मेंद्र उर्फ़ सुमेर। इन दोनों की दोस्ती जय-वीरू टाइप है। विकी अपने बाकी परिवार से अलग है, वह जात-पात को नहीं मानता पर ठाकुर होने की ऐंठन जब-तब दिखाता रहता है। इतने सारे हीरो लिए हैं तो ढेर सारी हीरोइन भी लेनी ही पड़ेगी तो सुमेर को मिली डिंपल, विकी को अमृता सिंह और मोहसीन को पूनम ढिल्लो। तो परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनती हैं कि विकी और सुमेर दोनों बाग़ी बन जाते हैं अर्थात डाकू योनि को प्राप्त होते हैं और सिचुएशन को और कठिन बनाते हुए एक दूसरे के जानी-दुश्मन हो जाते हैं। हमारे उस ज़माने में दोस्त हो या दुश्मन दोनों जानी होते थे। इसका कारण होता है सरकार का जमींदारी प्रथा ख़त्म कर देना और इससे हुए संघर्ष में गाँव वालों द्वारा विकी के छोटे भाई को जान से मार देना। इसमें थोड़ा और तड़का लगाने के लिए डाला गया अमरीश पुरी को, जो पूरे 80 के दशक में फ़िल्मों का अनिवार्य हिस्सा थे। मैं तो उस समय उसी फ़िल्म को दमदार मानता था जिसमें विलन अमरीश पुरी हो, अगर फ़िल्म में मुख्य विलन शक्ति कपूर, गुलशन ग्रोवर वगैरह हो तो बहुत हल्की फ़िल्म लगती थी। और चूंकि उस समय एक विलन से हमारा पेट नहीं भरता था, हमें थाली भरकर गुंडे चाहिए होते थे तो साथ में भरत कपूर और अवतार गिल को भी लटका दिया था। अवतार गिल को डाकू बनाने की गुस्ताख़ी शायद इस इकलौती फ़िल्म में ही की गई है। भरत कपूर शक्ल से ही बहुत कमीने लगते थे। तो नाचते-गाते, रोते-झींकते फ़िल्म अंत तक पहुँचती है जहां दोनों दोस्त अपनी मूर्खता का परिचय देते हुए हत्या करते हुए आत्महत्या कर लेते हैं। कैसे? दोनों ने अमरीश पुरी को बंधक बना लिया है, पुलिस ने घेरा हुआ है, फिर दोनों थोड़ी देर बकैती करते हैं, बचपन के बारे में और फिर सूअर के शिकार के बारे में और अमरीश पुरी को तो मारना ही था तो बढ़िया सेट अप जमा हुआ है सोचकर वहीं निपटाने का विचार करते हैं जबकि उसके सर पर बंदूक रख कर उसे लेकर वहाँ से निकल भी सकते थे और आगे जाकर मार देते पर नहीं, उस समय फ़िल्म के sequel का रिवाज नहीं था। तो वहीं उसे भगाकर उसे मारते हैं और विकी का पुलिस वाला भाई और भी बड़ा मूरख, एक अमरीश पुरी की जान बचाने के लिए दो भले आदमियों को मार देता है। 

फ़िल्म में हीरोइन को पटाने के लिए ज़्यादा टाइम नहीं था, दोनों अधेड़ नायकों की बकैती के लिए ज़्यादा था। इसलिए दोनों पहली बार मिलते ही पट जाती हैं। 

धर्मेंद्र इस फ़िल्म के समय 54 साल के थे और विनोद खन्ना 43 के। धर्मेंद्र का बुढ़ापा साफ़ नज़र आ रहा है। अपने से 7 साल छोटी माँ के पैर छू रहे हैं और 15 साल छोटी डिंपल से रोमैन्स कर रहे हैं जो उस समय असल में सनी के साथ इन्वोल्व थीं। नायिकाओं में डिंपल का रोल बड़ा था, और पूनम ढिल्लो के करने के लिए कुछ भी नहीं था। पितृसत्तात्मक समाज देखिये कि 54 साल के एक्टर को हीरो मंजूर कर लिया और 47 साल की आशा पारेख को बेचारी को माँ का रोल करना पड़ा, फेमिनिस्टों से इस मुद्दे को उठाने की मैं माँग करता हूँ। 

फ़िर भी फ़िल्म बुरी नहीं है। थोड़ा बहुत मेलोड्रामा इग्नोर कर दिया जाये तो गति अच्छी है। घोड़ों के साथ शूट करने में कितना मज़ा आता होगा और भागते घोड़ों का वो extreme wide angle बहुत खूबसूरत लगता है। मेरे खयाल से जे पी दत्ता की सारी फ़िल्मों में इस फ़िल्म की सिनेमैटोग्राफी और उनके शॉट्स बहुत बढ़िया हैं। फ़िल्म में भव्यता नज़र आती है। 

फ़िल्म की कहानी आज़ादी के समय की है लेकिन कभी भी आपको ऐसा नहीं लगता कि आप उस समय की कहानी देख रहे हैं, ये सबसे बड़ी कमज़ोरी है। कालखंड को वास्तविक बनाने के लिए उस समय की कुछ ऐसी चीज़ें दिखाई जाती हैं जो उसे स्थापित करती है पर लेखक और निर्देशक ने इसे ज़रूरी नहीं समझा। इससे ज़्यादा इस बारे में मनमोहन देसाई ने सोचा था “मर्द” बनाते समय। 

फ़िल्म के निर्माता सलीम निर्देशन राज सिप्पी को देना चाहते थे पर धर्मेंद्र के कहने पर जे पी दत्ता को लिया गया। जब कहानी लिखी जा रही थी तब मोहसिन ख़ान वाला किरदार सुनील दत्त के लिए था और वो सबसे बड़ा भाई था पर बाद में उसे सबसे छोटा बना दिया गया। पहले ये रोल अनिल कपूर करने वाले थे पर उन्होंने फ़िल्म छोड़ दी, तब दत्ता नसीरुद्दीन शाह को लेना चाहते थे पर रीना रॉय के कहने पर उनके पति मोहसिन ख़ान को लिया। विनोद खन्ना अमृता सिंह के ऑपोज़िट काम हमेशा रिजैक्ट करते आए थे क्योंकि वो उनके मित्र की बेटी थी पर इस फ़िल्म में वे राज़ी हो गए। उस समय अमृता सिंह का affair रवि शास्त्री के साथ था। फ़िल्म के दौरान उनका ब्रेक अप हुआ और धीरे-धीरे विनोद खन्ना और अमृता के बीच प्रेम हुआ। दोनों शादी करना चाहते थे पर अमृता की माँ राज़ी नहीं हुई क्योंकि विनोद खन्ना उनसे 15 साल बड़े थे। मोहसिन ख़ान पहले cricketer थे और क्रिकेट से सन्यास लेकर फ़िल्मों में आए। ये उनकी पहली फ़िल्म थी। इस लिहाज से उनका काम बढ़िया है। वे अपने ऑपोज़िट किमी काटकर को चाहते थे पर जे पी दत्ता पूनम ढिल्लो को बदलने को तैयार नहीं हुए। 

फ़िल्म के दौरान धर्मेंद्र और जे पी दत्ता के बीच काफी विवाद हुए, धर्मेंद्र के सेट पर लेट और पी कर आने के कारण। धर्मेंद्र ने अब तक एक्टिंग को casually लेना शुरू कर दिया था इसलिए कोई विशेष प्रयास नहीं दिखता उनकी तरफ़ से, हाँ, विनोद खन्ना जबर्दस्त हैं। 

फ़िल्म का संगीत लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का था जो हर भव्य फ़िल्म के लिए पहली पसंद हुआ करते थे। गाने अच्छे ही थे जिनमें सबसे अच्छा गाना “तू मेरा कौन लागे” था, सबसे ज़्यादा हिट भी यही हुआ था। 

80s की कोई फ़िल्म देखने का दिल करे तो इसे देखा जा सकता है। 

#Bantwara #Dharmendra #VinodKhanna #DimpleKapadia #AmritaSingh #JPDutta #ShammiKapoor #80sMovies #oldMovies


टिप्पणियाँ