महाराजा - न भी देखें तो नुकसान नहीं

 


लोग-बाग अब ऑस्कर पर आ गए हैं तो मुझे कुछ बोलना ही पड़ेगा यार। आख़िर ऑस्कर की जूरी में जाने वाला हूँ मैं।

महाराजा, महाराजा, महाराजा...खूब शोर है भाई सांप। मैंने भी हाथ-मुँह धोकर, आलथी-पालथी मार कर बहुत जोश के साथ शुरू की – अब्बी मजा आएगा ना भिडु।

फ़िर फ़िलम शुरू हुई और ट्रक वाले सीन ने सच्ची में मेरे कू सेंटी कर दिया, मेरे को लगा मजा आना शुरू हो गएला है भिडु। 

फ़िलिम आगे बढ़ी पन रुक गई। कुछ नई हो रेला था। एक सूमड़ा नाई था जिसकी एक बेटी थी और एक रात उसके घर के अंदर में चोरी हो गएलि, उसके कचरे के डब्बे की। अपुन ये नई बताएगा कि कचरे के डब्बे की कायकू? नई तो लोग बोमाबोम करेंगे। तो उसका रिपोर्ट लिखाने कू ये सूमड़ा आदमी जाता है पुलिस चौकी। ये इतना irritating आदमी है कि उधर फ़िलम में तो सब इसको भगाता ही है, इधर अपना भेजा अलग गरम हो जाता है। 

चलो अब जबड़ा दुख रेला है, हिन्दी मेइच बोलता है अब। 

तो फिल्म हमारे निर्देशक साहब ने इतनी realistic बनाई, इतनी realistic बनाई कि अगर कैरक्टर को चाटू दिखाना है तो हमारा भी दिमाग चटवाया उससे ताकि हमें फ़ील आए। अगर इस बात के लिए ऑस्कर चाहिए, और ऐसी कोई कैटेगरी होती है तो मैं ज़रूर recommend करूंगा। 53 मिनट तक असीमित धैर्य का परिचय देते हुए मैंने फिल्म देखी। फ़िर क्योंकि एक से अधिक मित्रों के पोस्ट पढ़ चुका था तो मैंने साफ़गोई बरतते हुए उनसे पूछा कि इतने मिनट हो गए हैं और मेरे दिमाग का आधा दही जम चुका है, आगे भी दही हो तो बंद करूँ, वरना देखूँ। इस पर दोस्तों ने रहस्योद्घाटन किया कि उनके दिमाग का भी दही जमा था पर आखरी के दस मिनट ने रिर्वस इंजीन्यरिंग करके दही का वापस दूध निकाल दिया। फ़िर मैं ठहरा दोस्तों की कद्र करने वाला आदमी, दोस्ती ही सब कुछ है ऐसा मान कर मैंने आगे देखना शुरू किया। लोगों ने मुझे ये भी बताया कि आखरी का सस्पेन्स हो सकता है तुम्हारे दिमाग के परखचचे उड़ा दे, इतना भयंकर सस्पेन्स है। पर आगे कुछ ही मिनट देखी और मुझे वो भयंकर वाला सस्पेन्स समझ आ गया। मैंने फ़िर गुहार लगाई कि भाई मुझे तो समझ आ गया पर मेरे जिगरी दोस्त बोले फ़िर भी देखो और मैं आज्ञाकारी की तरह देखता गया। अब आखरी में सस्पेन्स के मारे घिग्घी बंधने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता, तो मेरे लिए सस्पेन्स बस यही था कि ये सस्पेन्स खुलता कैसे है। ठीक है खुलता है, सदमा लगता है किरदार को और वही होता है जो मैंने सोचा था। अंत अच्छा है, ये माना मैंने लेकिन अगर आप ये कहें कि इस अंत के लिए बाकी की फ़िल्म को माफ़ किया जा सकता है तो ये ना हो पाएगा।

मेरी राय में निर्देशक ने दर्शकों के साथ fraud किया है। क्योंकि एक सस्पेन्स फ़िल्म में सस्पेन्स परिस्थितियों से पैदा होता है लेकिन चूंकि अगर लिनियर स्टाइल में इस कहानी को कहा जाये तो ये सस्पेन्स वाली कहानी है ही नहीं, तो लेखक ने बेईमानी से काम लिया, आपको जबर्दस्ती भटकाया। एक अच्छी सस्पेन्स फ़िल्म में अगर कोई घटना भटकाती भी है तो अंत में उसका संबंध कहानी से जुड़ता ज़रूर है, लेकिन यहाँ हर एक घटना का उद्देश्य सिर्फ़ और सिर्फ़ दर्शक को मूर्ख बनाना था और उसके लिए लेखक अतिरंजना में गया। इस कालखंड में अद्भुत घटनाएँ घट रही हैं। मैंने कभी नहीं सोचा था कि एक फ़िल्म लेखक अपने लिखने के स्टाइल में माननीय से प्रेरित होगा। ख़ैर, स्कूल के प्रिन्सिपल वाली घटना घटती है, और बड़ा लंबा चला था वो सीन, तो लगा था आगे इसका कुछ होगा लेकिन वो सिर्फ़ ये बताने के लिए कि भाई का हाथ सनी देओल से भी भारी है। फ़िर सांप दिखाया, दो बार दिखाया और इस तरह दिखाया कि यकीन हो जाये कि हो न हो भाई इच्छाधारी नाग है। फ़िर थाने में अनंत काल तक चलता हुआ महाराजा और उसके साथ हमारा टॉर्चर। मेरे खयाल से तो फ़िल्म का वो हिस्सा ज़्यादा अच्छा है जो धागे खुलने के बाद चलता है। कहानी को इतना न उलझा कर अगर सीधे-सीधे कहा जाता तो और भी अच्छी बनती, और तब ज़्यादा इमोश्नल होती।

आखिरी के सस्पेन्स ने अगर आपके दिल को दहला दिया है तो मैं एक फ़िल्म बताता हूँ उसे देखिये, लिनियर structure है पर फ़िल्म कई दिनों तक आपके दिलो-दिमाग को सुन्न कर के रखेगी। प्रकाश झा की फ़िल्म – परिणिति।

फ़िर भी फ़िल्म जो मैसेज देना चाहती है वो अच्छा है। एक अपराधी का हाथ पकड़कर घुमाकर उसी का कान पकड़ाया है, ये बताने के लिए कि अब बोल कैसा लगता है? फ़िल्म के कुछ दृश्य मुझे disturbing लगे। मैं बच्चों के साथ क्रूरता नहीं देख पाता हूँ, मेरा मन ख़राब हो जाता है। 

विजय सेतुपति जैसे होते हैं, वैसे ही हैं। अनुराग कश्यप बतौर अभिनेता मुझे नहीं पसंद आते। साउथ की फ़िल्मों में लाउड एक्टिंग चाहिए होती है इसलिए ठीक है पर otherwise मेरे खयाल से उन्हें नहीं करना चाहिए। उस पर भी उन्हें जघन्य हत्याएँ करने वाला कैरक्टर ही चाहिए होता है। जिन चीजों से बतौर निर्देशक वे अभिनेताओं को बचाते हैं, बतौर अभिनेता वही सब करते हैं। उनकी तुलना में तिग्मांशु धूलिया महान अभिनेता हैं। उन्होंने “गंग्स ऑफ वासेपुर” में जो अभिनया किया है वो बेमिसाल है। 

मुझे पता है मेरे मित्र तो मुझे हड्काएंगे ही पर अंजान ट्रोल्ल्स गाली-गलौज पर उतर आएंगे तो मित्रों को तो सौ ख़ून माफ पर जो अजनबी आकर गाली दे रहा है, वो अपने लिए उसकी 21 गुना गालिया एडवांस में ले जाये, मैं अलग से जवाब देने नहीं आऊँगा।

और हाँ, ऑस्कर मांगने की फिर भी हिम्मत करते हो तो कम से कम 100 फ़िल्में लगातार देखो ऑस्कर विनर, और एक बार फिर सोचो। 

चलो शुरू हो जाओ!

म्यूजिक…

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