मर्डर इन माहिम - सिर्फ़ एक अपराध कथा नहीं

 

किस भी व्यक्तित्व का प्रभावशाली होना सिर्फ़ उसके लंबे-चौड़े होने पर निर्भर नहीं है, ये प्रभाव जिस चीज़ का पड़ता है वो होती है गहराई। कितनी गहराई है किसी इंसान में उसी बात से लोगों पर उसका प्रभाव पड़ता है। और ये गहराई ही एक इंसान को अच्छा इंसान बनती है।

कहानी के साथ भी कमोबेश यही मामला है। कहानी में कितनी गहराई है, कितनी परते हैं और कितना ठहराव है, यही चीज़ें उसे अच्छी, कम अच्छी, या बहुत अच्छी कहानी बनाते हैं। अफ़सोस की बात ये है कि ये ट्रोल युग है, यहाँ आप मिर्ज़ापुर जैसी एक आयामी कहानी के बारे में कुछ कहो तो ट्रोल्स भाला लेकर दौड़ पड़ते हैं, क्योंकि ट्रोल्स की बुद्धि भी दर असल एक आयामी होती है, एक ही सिरे के अलावा और सिरे पकड़ने की क्षमता उनकी विकसित नहीं हुई होती। एक अपराध कथा अमानवीय नहीं होती, वो भी मानवीय हो सकती है। आप समाज का अमानवीय चेहरा दिखा रहे हैं लेकिन उसे मानवीयता के साथ दिखाएँ तो कहानी साहित्य का स्तर छू लेती है और जो कहानियाँ सिर्फ़ अपराध की वीभत्सता, अनैतिकता का लुत्फ़ उठाने के लिए लिखी जाती हैं, साहित्य में उसे लुगदी साहित्य और सिनेमा में सी ग्रेड कहा जाता है। और अक्सर ये होता है कि जो फ़िल्में साहित्य के स्तर को छूती हैं वे साहित्य पर ही आधारित होती हैं। ये सिरीज़ भी लेखक "जेरी पिंटो" की किताब "मर्डर इन माहिम" पर ही आधारित है। 

ख़ैर, इतनी लंबी भूमिका बाँधने का कारण भी एक अपराध कथा ही है लेकिन ये “सिर्फ़” एक अपराध कथा नहीं है। ये उस अपराध के पीछे बहुत कुछ कहती चलती है। उसके हर किरदार, और हर किरदार के हर रिश्ते की पड़ताल करती चलती है।

जियो सिनेमा पर पिछले महीने ही आई थी “मर्डर इन माहिम”। विजय राज़ और आशुतोष राणा की मुख्य भूमिकाओं वाली ये सिरीज़ पता नहीं क्यों, उतनी चर्चित नहीं हुई जितना इसे होना चाहिए था। कहानी शुरू होती है माहिम रेल्वे स्टेशन के पब्लिक टॉइलेट में एक गे लड़के की बर्बरता से हुई हत्या से। इस केस की जाँच शेण्डे (विजय राज़) कर रहा है। इस एक क़त्ल के बाद कुछ और क़त्ल होते हैं और गुत्थी उलझती जाती है, लेकिन गुत्थी सिर्फ़ क़त्ल की ही नहीं उलझी है, गुत्थी उलझी हुई है शेण्डे और उसके पुराने दोस्त पीटर (आशुतोष राणा) की दोस्ती की भी, शेण्डे और उसके पिता की भी, पीटर और उसके बेटे सुनील की और शेण्डे की सहायक रब्बानी की भी। ये कहानी सिर्फ़ क़त्ल को लेकर ही आगे नहीं बढ़ती, बल्कि मेरा ये मानना है कि क़त्ल और उसकी जाँच की सनसनी ही इसका एकमात्र उद्देश्य नहीं है बल्कि ताना-बाना कुछ इस तरह से बुना गया है कि क़त्ल उसका एक हिस्सा है पर वो सब पर हावी नहीं होता है। इस क़त्ल के जरिये एक बहुत बड़ा मुद्दा भी उठाया गया है जिसे अब तक एक passing comment की तरह ही लिया जाता रहा है। ये सिरीज़ समलैंगिक लोगों की ज़िंदगियों में बहुत गहराई से झाँकने का प्रयत्न करती है और ज़्यादातर इस विषय में ईमानदार रही है। ख़ुशी की बात है कि बनाने वालों ने कहानी का साहित्यिक तत्व कुछ हद तक बरकरार रखा है। इससे हमें ये एहसास भी होता है कि अगर हमारे समाज में सभी लोग पीटर की तरह सुलझे हुए हों तो इस देश का हैप्पीनेस इंडेक्स रिकॉर्ड तोड़ जाये, यहाँ तो आलम ये है कि हर कोई दूसरे का मज़ाक बना रहा है, उसे दबाने की कोशिश कर रहा है। 

मैं मिर्ज़ापुर या महाराजा की बात करते समय जिस ठहराव की बात कर रहा था, वो मुझे यहाँ देखने को मिला। हर भावना को ठहर कर महसूस करके फिर हमें महसूस करवाया गया है। कई दृश्य भावुक कर देते हैं जैसे शेण्डे का अपने बाप को वाचमैन की नौकरी करते देखना और भीगे हुए स्वर में अपनी बेबसी का बयान करना। या पीटर का अपने बेटे के साथ बातचीत करना। फ़िल्म अपने हर किरदार की ज़िंदगी को पूरी तरह खोलकर दिखाती है, शेण्डे सिर्फ़ एक पुलिस अफसर ही नहीं है, वो एक दोस्त है, बेटा है, बाप है और पति है। 

कहानी हत्याओं के पीछे की वजहों तक जाती है। सिस्टम इसे ब्लैक एंड व्हाइट देखता है लेकिन ऐसा होता नहीं है। जो समाज जितना दबा कुचला, जितना frustrated होगा उसमें अपराध उतने ही ज़्यादा होंगे और हमारा समाज इसके लिए बहुत ही उर्वर ज़मीन मुहय्या करवाता है। 

विजय राज़ को अपनी क्षमताओं के साथ न्याय करे ऐसे किरदार ना के बराबर ही मिले हैं। उन्हें ऐसे ही किरदार मिलते हैं जिन्हें एक ही तरह की हरकतें करनी होती हैं, उनमें भी ज़्यादातर हास्य होता है। एक उन्होंने अपने करियर की शुरुआत में ही “रघु रोमियो” की थी और एक ये सिरीज़ है जो उनकी प्रतिभा का पूरा इस्तेमाल करती है। इस किरदार में बहुत से shades हैं जिनमें कॉमेडी तो नहीं ही है। और क्या खूबसूरती से उन्होंने निभाया है ये किरदार। उनकी स्क्रीन presence लाजवाब है और संवाद अदायगी तो सब जानते ही हैं। आशुतोष राणा हमेशा की तरह बेहतरीन हैं, बस उन्हें अपने हैयर स्टाइल पर ध्यान देना चाहिए। पर इसमें विजय राज़ उनसे भी बेहतर साबित हुए हैं। फिल्म के अन्य किरदारों ने भी बेहतरीन काम किया है, चाहे वो यूनिट हो, सुनील हो या इंस्पेक्टर दुर्रा हो जिसने एक सीन में कमाल का परफॉर्मेंस दिया है।  

कुछ कमियाँ हैं इसमें भी, कहीं कहीं खींची हुई लगती है पर 100% पर्फेक्ट तो हो भी नहीं सकती। मेरा यही कहना है कि थ्रिलर बना रहे हैं तो उसमें सिर्फ़ ख़ून-खच्चर का प्रदर्शन ही आपका उद्देश्य नहीं होना चाहिए। पाताललोक भी अच्छी सिरीज़ इसीलिए बन पड़ी थी कि वो सिर्फ़ अपराध नहीं बल्कि उसकी जड़ों के बारें में बात कर रही थी। सिरीज़ का बैक्ग्राउण्ड म्यूजिक सुपर है, उसे थ्रिल नहीं बल्कि भावनाएँ जगाने के लिए बनाया गया है, कहीं भी लाउड नहीं होता। लाउड तो कहानी भी नहीं होती। मेरे ख़याल से इसे देखा जाना चाहिए।

मुझे बहुत अच्छी लगी, पर ज़रूरी नहीं कि सभी की एक राय हो, फिर भी शुरू करिए और अगर अच्छी लगे तो पूरी देखिये। 

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