द नन - डर की तलाश



 ज़िंदगी ख़ुद इतनी हॉरर हो गई है कि अब हॉरर फ़िल्में देखकर डर ही नहीं लगता। 

डर की तलाश में मैंने कई फ़िल्में देख डाली स्ट्रेंजर थिंग्स, गेट आउट, supernatural और फिर द नन, जिसके बारे में मैं सोचता था कि देखूंगा तो डर लगेगा। लगता है इतने डर देख लिए है जीवन में कि ये नन वगैरह कम पड़ रहे हैं। 

एक तो मुझे एक बात कभी समझ नहीं आती कि मालूम है कि भूत वाला इलाक़ा है, दूसरों को ज्ञान भी बाँट रहे हैं कि मत जाओ और फिर भी श्याने बन के रात में लालटेन पकड़े निकल पड़ते हैं। उस पर भी तुम्हें मालूम है यहाँ एक मौत हो चुकी है, तुम्हारे सामने हुई है, तुम ये भी मानते हो कि जगह अच्छी नहीं है, रात भी है और दूर कहीं भूतिया आकृति दिखती है तो बजाय इसके कि सर पर पैर रखकर दुड्की लगा दे, उसके पीछे जाएँगे, और वो गायब भी हो जाये तो ढूँढने लगेंगे जैसे ढूँढ कर नौकरी देनी हो। और ये भूत लोग भी ये नहीं कि आदमी दिखा और सीधा जा के पेल दे, पहले खो-खो खेलेंगे। एक जगह दिखेंगे, फिर दूसरी जगह दिखेंगे, फिर तीसरी जगह, और फिर बढ़िया टाइम पास करने के बाद धप्पा कर देंगे। पर फिर सोचता हूँ, हमारे पास तो amazon प्राइम वगैरह है, उनको तो रात ऐसे ही काटनी पड़ती है। it’s ok भूत जी, प्ले।

आज के समय में हॉरर फ़िल्म बनाना वाकई challenging है क्योंकि, एक तो दर्शकों की समझ बहुत बढ़ गई है, अब आप बेतुके दृश्यों से उन्हें चौंका नहीं सकते, और दूसरे हॉरर फ़िल्मों के पास लिमिटेड situations होती हैं, उन्हीं से डर पैदा करना है। उसमें भी आपको अचानक भूत की थूथ दिखा कर डराना तो अनिवार्य है, बॉलीवुड हो या हॉलीवुड, इससे नहीं बच सकता। तो ऐसे में हॉरर फ़िल्म अच्छी है या बुरी ये इसी बात पर निर्भर करता है कि आपने किस तरह उन्हीं सब चीजों का उपयोग किया है जो अब तक होती आई हैं। “द नन” इस मामले में थोड़ी कमजोर है। मेरे जैसे फ़िल्मों में गहरे धँसे हुए व्यक्ति के लिए तो कम से कम है ही, हाँ दूसरे दर्शकों को ज़रूर डरा सकती है। 

फ़िल्म की कहानी 1952 के दौर की है जब रोमानिया के पास एक सुनसान जगह पर के बहुत प्राचीन चर्च में एक नन आत्महत्या कर लेती है। इस मामले की पड़ताल के लिए वेटिकन एक पादरी और एक फ्रेशर नन को वहाँ भेजते हैं। फ़िर क्या क्या घटनाएँ घटती हैं और कैसे वो वहाँ बसे शैतान से निबटते हैं, यही कहानी है। 

फ़िल्म की सबसे अच्छी चीज़ है इसका प्रॉडक्शन डिज़ाइन। फ़िल्म का लुक इसे हॉरर फ़ील देने में कामयाब है। परफॉर्मेंस भी बढ़िया हैं। बस कई जगह लॉजिक को ताक पर रख दिया है बावजूद इसके कि हॉरर फिल्मों को लॉजिक में थोड़ी ढील देना बनता है। एक सीन तो रामसे की फिल्मों जैसा हो गया जिसमें पादरी अपने कमरे में सो रहा है, शॉट उसके पैरों की तरफ़ से लिया गया है और उसने जूते पहने हुए हैं। जूते पहन कर कौन सोता है भाई? पर चूँकि ये हॉलीवुड फ़िल्म है तो मैंने सोचा कुछ कारण होगा इसका लेकिन कोई कारण नज़र नहीं आया। भूत अधिकांश समय आँख-मिचौली खेलने में ही बिताता है। कभी तो प्रकट हो जाता है और कभी दौड़ कर पीछा करता है जिसमें हमारे कलाकार जीत जाते हैं। 

मेरे दिमाग में एक ज्वलंत सवाल है, चर्च में कबूतर भी हैं। क्या उन कबूतरों को भूत से डर लगता होगा? और क्या भूत उन्हें seriously लेते हैं? काश कबूतर बोल पाते तो उनसे ये ज़रूर पूछता मैं। 

और भूत सिचुएशन में फँसे लोगों की तरफ़ से भी सोचा मैंने, कि साला एक तो ये समझ नहीं आता कि ज़िंदगी वैसे ही इतनी डरावनी होती है इंसान की, भारत में पैदा हुआ हो तो झंड ही समझो, ऊपर से ये भूत का टेंशन और।

ख़ैर, फ़िल्म एक बार तो देखी ही जा सकती है, बुरी नहीं है। 

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