महाराज - ज़रूर देखी जानी चाहिए


 

मैंने “जुनैद ख़ान” को पहली बार “महाराज” के ट्रेलर में ही देखा और सच कहूँ तो आमिर ख़ान के बेटे के नाम पर मेरे मन में एक खूबसूरत नौजवान की तस्वीर बनी थी जो जुनैद को देखकर चकनाचूर हो गई, शायद यही वजह रही कि मन में एक पूर्वाग्रह बन गया। जुनैद देखने में बिलकुल भी अच्छे नहीं लगते ये सच है, अब पूरा दारोमदार उनके हुनर पर था, इस क्षेत्र में भी आमिर ख़ान की वजह से उम्मीदें जागती हैं, पर ट्रेलर मुझे बिलकुल पसंद नहीं आया। मैंने फ़िल्म देखने का विचार ही नहीं बनाया, पर फिर फ़िल्म की तारीफ़ें पढ़ता रहा तो सोचा एक बार देखना तो बनता है, खास तौर पर जब फ़िल्म एक सच्ची ऐतिहासिक घटना पर आधारित है जिसके बारे में मैं नहीं जानता। 

तो फ़िल्म देखी गई और कहना होगा कि मेरे सारे पूर्वाग्रहों को ध्वस्त करती गई जैसे-जैसे फ़िल्म आगे बढ़ी। हाँ, पर्फेक्ट तो नहीं है पर कुल जमा हिसाब किया जाये तो फ़िल्म बहुत अच्छी बनी है। 

कहानी का कालखंड है 1862 का, जब विष्णु मंदिर के मुख्य महाराज का ख़ूब दबदबा था। हवेली की एक परंपरा थी “चरण सेवा”, महाराज किसी भी लड़की को अंगूठा दबाकर ये इशारा देते थे कि आज चरण सेवा का अवसर तुम्हें दिया गया है और लड़की के घर में उत्सव का माहौल हो जाता था, इस चरण सेवा में दर असल चरणों की सेवा नहीं होती थी, पूरी देह की सेवा होती थी और उस पर भी व्यवस्था ये थी कि महाराज के बेडरूम में बहुत से झरोखे थे जिनसे भक्त गण ये सेवा लाइव देख सकते थे, ऑब्वियसली इसका टिकिट लगता था जो महाराज का खास सेवक लेता था। हर लड़की को शादी होते ही अपने पति से पहले महाराज को ये सेवा देनी होती थी जिसके बाद पति उसे प्रसाद मान कर ग्रहण करता था। 

इस देश की जनता को दर असल लत है मूर्खता की। ऐसा कोई समय काल नहीं गुज़रा जब इसे धर्म के नाम पर ठगा न गया हो, और इससे ये भी पता चलता है कि हम दुनिया में अकेली ऐसी कौम हैं जो इतिहास से कोई भी सबक नहीं लेती है, बल्कि इतिहास को जानना भी नहीं चाहती। 1862 में एक महाराज हो चुका था लेकिन आज 21 वीं सदी में ऐसे कई कई महाराज सफलतापूर्वक अपनी सेवा करवा रहे हैं। एक आसाराम पकड़ा गया तो क्या, दूसरे आ जाते हैं। अब तो इस गाजर घास की खेती लहलहा रही है। मैं तो सोचता हूँ कितने गए गुजरे लोग होंगे जो इस तरह के कृत्य को सेवा के नाम पर मानने भी लगते हैं। थू है ऐसे लोगों पर। 

इस देश में ज़्यादा महापुरुष होने का कारण भी यहाँ की जनता का अति मूर्ख होना ही है। जो समझदार व्यक्ति होता है उसका दम घुटता है इन जड़ मूरखों के बीच और उन समझ वाले इन्सानों में से कुछ इसके लिए काम करने लगते हैं और कुछ अभूतपूर्व कर जाते हैं।

ताज़ा मामला है हाथरस का, जहां एक बाबा के सत्संग में भगदड़ से कई लोगों की मौत हो गई। मैं उसके बाद लोगों के इंटरव्यू सुन रहा था, और सुनकर क्रोध के मारे संवेदना जाती रही। इन लोगों का मानना है कि बाबा को सब पता था, जिनकी मौत आई थी वे चले गए और जिनकी नहीं आई थी वे बच गए। बाबा को हम परमात्मा मानते हैं। इन्हीं लोगों ने इस देश को नर्क बनाए रखा है अब तक। यही लोग हैं जो तानाशाही के लिए माकूल वातावरण उपलब्ध करवाते हैं। यही लोग हैं जिन्हें मूर्ख बनाकर, हालांकि मूर्ख तो ये पहले से हैं, बस इनकी मूर्खता को महिमामंडित कर, सहला कर एक धूर्त शीर्ष पर पहुँच जाता है। ये विश्व गुरु की बात करते हैं, क्या सिखाएँगे विश्व को? मूर्खता?

ख़ैर, विषय से भटक गया मैं, फिर से फिल्म पर आते हैं। तो उसी दौर में है एक करसन दास जो तर्क के पैमाने पर चीजों को तौलता है, जो किसी भी अतार्किक बात को मानने को तैयार नहीं है। जो समाज को सुधारना चाहता है, उस समाज को जिसमें असंख्य बीमारियाँ हैं। वो विधवा विवाह करवाना चाहता है, अंधविश्वास के खिलाफ है, घूघट के खिलाफ़ है। लेकिन समाज के लिए वो एक पागल आदमी है। वो लेख लिखता है हर बुराई के खिलाफ़, दादा भाई नौरोजी की पत्रिका में। मेरे कुछ फाजिल मित्र आज भी कहते हैं लिखने से क्या होगा? बहुत कुछ होता है भाई। 

तो महाराज और करसन आमने-सामने हो जाते हैं। करसन महाराज के खिलाफ लेख लिखता है, इस परंपरा के खिलाफ़ लिखता है, महाराज के लड़कियों के शोषण के खिलाफ़ लिखता है, जबकि लड़कियां खुद इसे सौभाग्य मानती आई हैं। महाराज से सीधा टकराव होता है और महाराज उसके खिलाफ़ मानहानि का मुक़दमा दायर कर देता है। ज़ाहिर है करसन के पास कोई गवाह तो मौजूद है नहीं। फिर कैसे इस मुक़दमे में मोड़ आते हैं ये दिलचस्प है। 

जयदीप अहलावत हमेशा की तरह अपने किरदार में बिलकुल आराम से उतर जाते हैं और महाराज के हाव-भाव उनके शरीर से निकलने लगते हैं। जुनैद की सबसे बड़ी तारीफ़ तो यही होनी चाहिए कि आमिर जैसे स्टार के बेटे होने और इंडस्ट्री के हर बड़े बैनर के उपलब्ध होने के बाद भी किसी मसाला फ़िल्म की बजाय इस फ़िल्म को उन्होंने अपने पदार्पण के लिए चुना। ये चुनाव आमिर से ही आया है, जो ख़ुद हमेशा से एक अलग ही तरह के सितारे रहे हैं। संजय गुप्ता का एक इंटरव्यू मैं सुन रहा था जिसमें उन्होंने बताया था कि उस जमाने में जब फ़िल्म स्टार्स के पास मारुति 800 हुआ करती थी, तब आमिर अकेला ऐसा आदमी था जो उसमें सीट बेल्ट लगाकर बैठता था और हम सब उस पर हँसते थे, आमिर ही वो पहला एक्टर था जिसने एक समय पर एक ही फ़िल्म में काम करने का काम शुरू किया और तब भी सब लोग उसे पागल कहते थे, क्योंकि तब एक समय पर एक हीरो 8-8 फिल्में कर रहा होता था। जुनैद के बारे में भी सुनते हैं कि वे पब्लिक ट्रांसपोर्ट से ही यात्रा करते हैं। तो ये तो उन्हें विरासत में मिला है। ये जो संवेदनशीलता है, जो सिर्फ स्टार्स ही नहीं बल्कि आम लोगों में भी बहुत कम देखने को मिलती है। तो जुनैद का प्रदर्शन अच्छा है, पहली फ़िल्म और वो भी ऐसे विषय को देखते हुए, क्योंकि ये फ़िल्म परफॉर्मेंस oriented है। बस जयदीप के साथ आमने-सामने के दृश्य में थोड़ी प्रोब्लेम होती है। 

जयदीप अहलावत और जुनैद के आमने सामने के सीन में जयदीप कहते हैं – “अंतर तो देखो हम दोनों में” सच में अंतर बहुत बड़ा है। ये सीन मेरे खयाल से होना ही नहीं चाहिए था। वैसे तो जुनैद का प्रदर्शन ठीक ही चल रहा था लेकिन इस सीन में कमजोर कड़ियाँ खुल गईं। जयदीप जैसे धुरंदर अभिनेता के सामने एक बिलकुल नए लड़के को इतना लंबा सीन दे देना रिस्की था। फिर भी खराब तो बिलकुल नहीं कहा जा सकता। मुझे एक दिक्कत जुनैद का तलफ़्फुस भी लगी, जुनैद ने कहीं भी नुक़्ते का इस्तेमाल नहीं किया इज़्ज़त को हमेशा इज्जत बोलते रहे। अगर ये गुजरती किरदार को ध्यान में रखकर जान बूझकर किया गया है तब भी मान्य नहीं है क्योंकि ये किरदार बहुत पढ़ा-लिखा, बल्कि ख़ुद लेखक है और उस वक़्त तो उर्दू आम बोलचाल में बहुत ज़्यादा प्रयुक्त होती थी, तो इस किरदार को शुद्ध बोलना चाहिए था। और अगर ये बात नहीं है तो करोड़ों रुपये जब बाकी चीजों पर खर्च किए तो एक diction मास्टर भी रख लेते भाई। उसके डाइलॉग कानों में खटकते हैं। ऐसे ही अंग्रेज़ वकील करसन से भी बढ़िया हिन्दी बोल रहा है, उस पर भी काम कर लेते। वैसे भाषा पर और रिसर्च की जानी चाहिए थी।  

फ़िल्म में दो नायिकाएँ हैं, शलिनी पांडे बहुत खूबसूरत हैं पर अभिनय में कमजोर पड़ती हैं। शर्वरी वाघ भी बहुत सुंदर हैं पर उनका कैरक्टर जिस तरह का बनाया गया है वो बहुत ही घिसा-पिटा है, जिसे cliché कहा जाता है सिनेमा की भाषा में। शर्वरी को हाल ही में मैंने मुंजया में देखा था, और मुझे बहुत अच्छी लगी थीं, इस फ़िल्म में भारतीय परिधान में वे किसी 90s की एक्ट्रेस जैसी लगती हैं जिसका नाम मुझे याद नहीं आ रहा। 

संगीत सोहेल सेन का है। सोहेल सेन अपने खानदान की चौथी पीढ़ी हैं जो फ़िल्मों में संगीत दे रहे हैं। उनके पिता समीर सेन, 90s की मशहूर संगीतकार जोड़ी दिलीप सेन-समीर सेन वाले समीर हैं। और इनका खानदान तानसेन की परंपरा से है। सोहेल को कई मौके मिले, बड़ी फिल्में भी मिलीं पर अब तक कोई कमाल उन्होंने नहीं किया है। इतने बड़े बजट, पीरियड फ़िल्म और यशराज जैसे प्रॉडक्शन के होते हुए उनके पास ये मौका था कि वे कुछ कालजयी रच देते, कितनों को मिलता है ऐसा मौका, पर अफ़सोस, उन्होंने बहुत ही बोरिंग संगीत रचा है। डांडिया की रिदम पर वही गुजराती लोकधुन मिक्सी में पीस कर दे डाली।

सबसे तगड़ा काम आर्ट डिपार्टमेंट का है। सेट्स, वेषभूषा वगैरह सब कुछ बढ़िया हैं। 

कुल मिलाकर फ़िल्म अपना प्रभाव छोडने में सफ़ल है। यश राज से ऐसी फ़िल्म की उम्मीद नहीं थी, जबकि बरसों से वे लोग बेसिरपैर की फ़िल्मों में ही पैसा बहा रहे हैं। ये शुभ संकेत है। अगर ये बड़े बैनर अच्छे सिनेमा को सम्मान देना शुरू करें, बनाने लगें तो इनके पास इतने संसाधन हैं कि उसे प्रचलित भी कर सकते हैं। 

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