क्या सिनेमा मर रहा है?

 


"हमें तो अपनों ने डुबोया, गैरों में कहाँ दम था"

सिनेमा एक ऐसी नाव है जिसे वो सभी लोग डुबो रहे हैं, जो इसमें बैठे हैं। सब इसी में बैठकर पार जा रहे हैं और इसी का खयाल किसी को नहीं है। डुबो खुद रहे हैं और मज़े की बात ये कि डुबोने का इल्जाम किनारे खड़े लोगों पर लगाया जा रहा है।

"स्त्री 2" ने बॉक्स ऑफिस को पुनर्जीवित कर दिया लेकिन ये इस साल के आठ महीनों की पहली बड़ी सफलता है। साल में 3-4 हिट फ़िल्में, बहुत ही खराब प्रदर्शन है, ये खतरे की घंटी है लेकिन आश्चर्य है कि इस बिज़नस से जुड़े लोग मुतमईन हैं। इसका कारण है उनका पेट गले तक भरा होना। उनके पास इतना पैसा है कि कल को सिनेमा मर भी जाये तो उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ना। एक दुकान बंद होगी तो दूसरी खोल लेंगे, खीसे में पैसा हो तो क्या चिंता?

पर चिंता हम जैसे लोगों को होती है, जो एक तिनका उखाड़ने की कूवत नहीं रखते लेकिन इस एक काम के लिए अपने को बरबाद किए बैठे हैं। कल कुछ फिल्म वितरकों से मिलना हुआ। एक बड़े वितरक के अकेले के नाम पर कम से कम 30 सिंगल स्क्रीन थिएटर बंद करवा देने का सेहरा है। ये वितरक छोटे सिनेमा घरों को हिकारत से देखता है और उन्हें सीधे कहता है कि पैसा नहीं दे सकते तो बंद कर दो सिनेमा हॉल।

इस धंधे की सबसे ऊपर की पायदान पर बैठे हैं निर्माता। पहले फिल्म निर्माता भी फिल्म के लिए जुनूनी हुआ करते थे। इसी वजह से अच्छी फिल्मों की रिस्क भी उठा लेते थे, अच्छे टैलंट की तलाश में रहते थे। अब आलम ये है कि फिल्म से भी पहले उसे बेचने की कहानी लिखनी होती है। उसके बिकने की कहानी में भी मुख्य भूमिका स्टार की होती है। स्टार इतने पैसे लेता है जीतने रिकवर होना एक चुनौती है। फिर उसमें मसाला चाहिए होता है। कहानी का क्या है, किसी दो कौड़ी के आदमी से, जिसे लेखक होने का गुमान हो, लिखवा ही लेंगे।

वितरक nostalgia में जी रहे हैं, कि अब वो ज़माना नहीं रहा। एक समय था जब पोस्टर्स से गली भरी रहती थी। अब कोई फिल्म देखने नहीं आ रहा। पर ये लोग एकल सिनेमा को बचाने की कोई कोशिश नहीं करते। इन्हें सिर्फ आज जो पैसा आ रहा है उससे मतलब है। ये छोटे सिनेमा घरों के साथ बुरा बर्ताव करते हैं, और उनसे इतना पैसा मांगते हैं जितना उनका रिटर्न भी न हो। सब लोग तो आत्म हत्या नहीं कर सकते ना? तो वे लोग मैरेज गार्डेन बना लेते हैं।

अगली ज़िम्मेदारी आती है फिल्म मेकर्स की। ये लोग सिनेमा के उस जादू को भूल चुके हैं जो सार्वभौमिक है। एक तरफ आर्ट फॉर्म वाले हैं जो आम जनता को खारिज कर देते हैं और दूसरी तरफ धंधेबाज हैं जो सिनेमा को आर्ट मानने से ही इंकार करते हैं। ये दो अतियाँ हैं। सिनेमा के आर्ट को मनोरंजन के साथ बराबर मात्रा में जब तक नहीं मिलाया जाता, आप देखने वालों को आकर्षित नहीं कर सकते। अगर आपकी कहानी में वाकई में एक कहानी है और उसे मनोरंजक तरीके से कहा गया है तो लोग देखेंगे। स्त्री 2 भी तो देख ही रहे हैं। उदाहरण के लिए आप "दंगल" को ले लीजिये। एक sensible फिल्म थी पर उसमें मनोरंजन के सारे तत्व भी विद्यमान थे।

फिर ज़िम्मेदारी आती है सिनेमा घरों की। ये लोग ऐसी कोई कोशिश नहीं करते कि लोग फ़िल्में देखने आयें, इन्हें जितने भी आ रहे हैं उनकी जेब काटने की ही फिक्र रहती है। पॉप्कॉर्न बेचने में इन्हें ज़्यादा इंटरेस्ट है, फिल्म से। टिकट की कीमत आप 400 कर देंगे तो गरीब तो छोड़िए, मध्यम वर्ग भी नहीं आएगा। इनहोने फिल्मों को आम आदमी से छीनकर सिर्फ अमीरों के विलास का शगल बना दिया है। यही वजह है कि उन्हीं के लिए संगीत बन रहा है, उन्हीं के लिए पात्र रचे जा रहे हैं। फिल्मों को अगर एक बार फिर आम आदमी की पहुँच में पहुंचा दिया जाये तो लोग देखेंगे, बिलकुल देखेंगे। फोन अलग चीज़ है और सिनेमा एक अलग ही अनुभव है।

35 करोड़ एक फिल्म के लिए लेने वाला सितारा अगर कुछ एकल सिनेमा घरों को चलाने में भी मदद कर दे तो शायद इनकी फ़िल्में फिर से चलने लगे। वरना तो इनके बच्चों को कोई धंधा देखना पड़ेगा और उसमें भी अडाणी से नहीं जीत पाएंगे।


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