अंग्री यंग मैन - एक ज़रूरी सिरीज़

 “बसंती तुम्हारा नाम क्या है?”

“मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता”

“सरदार मैंने आपका नमक खाया है, अब गोली खा”

“जाओ पहले उस आदमी का साइन लेकर आओ जिसने मेरे हाथ पे ये लिख दिया”

“आज मेरी जेब में फूटी कौड़ी नहीं है और मैं पाँच लाख का सौदा करने आया हूँ”

“ये पुलिस स्टेशन है, तुम्हारे बाप का घर नहीं”

ऐसे और अनगिनत संवाद हैं जो हमारे ज़हनों में गहरे बसे हुए हैं। हमने अपना बचपन इन्हें बोलकर खेलते हुए गुज़ारा है। हमने कई-कई बार इन फ़िल्मों को देखा है, और अमिताभ बच्चन के मुरीद हुए हैं बिना ये जाने कि अमिताभ बच्चन के मुंह से जो ये धाँसू डाइलॉग निकल रहे हैं वे दर असल उस जोड़ी के हैं जिसका वो रुतबा था कभी कि अमिताभ बच्चन की जितनी फीस होती थी उससे एक लाख रुपये ज़्यादा माँगते थे और उन्हें मिलते थे। न भूतो न भविष्यति, ऐसा जलवा फिर किसी लेखक का नहीं रहा। 

हालाँकि ऐसा भी नहीं है कि कोई बेहतर लेखक नहीं आया फ़िल्म इंडस्ट्री में, लेकिन वो शौहरत फ़िर किसी को नसीब नहीं हुई। ये संयोग की ही बात है कि एक ही समय में दो सितारों का जन्म हुआ, एक पर्दे के ऊपर और दूसरा पर्दे के पीछे। ये सच है कि अमिताभ बच्चन के किरदारों को बनाने के श्रेय सलीम-जावेद को जाता है लेकिन ये भी उतना ही सच है कि उस लिखे हुए को परदे पर सिर्फ़ अमिताभ बच्चन ही उतार सकते थे। वहीं किरदार आप रणधीर कपूर को दे देंगे तो क्या ही होगा। जो आग, जो व्यक्तित्व उन किरदारों को चाहिए था, वो सिर्फ़ अमिताभ के पास था। मेरा ये मानना है कि 70 के दशक के अमिताभ का मुकाबला खुद अमिताभ भी 80 या 90 के दशक में नहीं कर सकते थे। वो personality अलग ही थी, बिलकुल रॉ। 

ख़ैर, फिलहाल बात हो रही है amazon prime पर आई सिरीज़ “Angry Young Man” की। और ये सिरीज़ ज़रूरी थी। ऐसे लेखकों को श्रद्धांजलि बनती ही है जिन्होने ऐसी फ़िल्में रची जिन्हें आज भी देखा जाता है, पसंद किया जाता है। अपने समय में जिन्होंने फिल्म लेखन की कई स्थापित परम्पराओं को तोड़ा और फ़िल्म लेखक को कम से कम वो दर्ज़ा दिलवाया कि उसका नाम महत्वपूर्ण होने लगा। भले ही वे मुख्य धारा का कमर्शियल सिनेमा था लेकिन उसमें वो बात थी जो उन्हें timeless बनाती हैं। दीवार, त्रिशूल, शोले, शक्ति आज भी देखी जा सकती हैं। 

सिरीज़ में सलीम और जावेद के अलावा उनके विषय में औरों के भी विचार लिए गए हैं, क्या ही अच्छा होता अगर उस दौर के कुछ और लोग मौजूद होते जब ये जोड़ी शीर्ष पर थी। किसी भी कलाकृति के सार्वजनिक हो जाने के बाद सब अपने-अपने नज़रिये से उसकी व्याख्या करते हैं जैसे सलीम जावेद की फिल्मों को समाज में फैली अराजकता के खिलाफ गुस्से के इज़हार का तमगा मिला हुआ है लेकिन जावेद साहब बड़ी ही सहजता से स्वीकार करते हैं कि हमने कभी ऐसा कुछ सोच कर नहीं लिखा था, पर ये ज़रूर है कि आप जिस काल खंड में रह रहे होते हैं उसका अक्स आपके काम में आना स्वाभाविक ही है। जावेद साहब को सुनना हर बार एक बेहतरीन अनुभव होता है। बड़ी ही खुशी होती है ये देखकर कि हमारे दौर में कुछ ऐसी शख्सियतें मौजूद हैं। सलीम साहब हमेशा से low profile ही रहे हैं। जावेद साहब जितने चर्चा में नहीं रहे लेकिन वे भी उतने ही सुलझे हुए रहे हैं। कितनी खूबसूरत बात है कि जब दोनों अलग हुए तो इस बात को उन्होंने निहायत व्यक्तिगत रखा, सार्वजनिक रूप से कोई टीका-टिप्पणी नहीं वजहें चाहे जो रही हों। यही एक बात दोनों के कद को बहुत ऊँचा उठा देती है। कई लोग डॉक्युमेंट्री को चापलूसी बता रहे हैं, मुझे ये समझ नहीं आता कि डॉक्युमेंट्री का और क्या format होना चाहिए। ये किसी व्यक्ति के काम का अवलोकन ही होता है, और उन्होंने अच्छा काम किया है इसमें कोई दो राय नहीं। 

बस हास्यास्पद यही लगता है जब करण जौहर लेखकों के महत्व पर प्रकाश डालते हैं जो 600 करोड़ रुपये एक फ़िल्म में लगाते हैं और एक अच्छा लेखक उनकी उस खर्च वाली लिस्ट में कहीं नहीं होता। ब्रह्मास्त्र के संवाद लिखने वाले ने अङ्ग्रेज़ी में लिखे और गूगल से उनका हिन्दी अनुवाद करके उपयोग कर लिया। आप जब ये कहें कि लेखक का काम क्या होता है तो हंसी भी आती है और रोना भी। जब आमिर खान कहते हैं कि आज कोई लेखक ऐसा नहीं तो दुख होता है। एक ऐसा कलाकार जो अपनी फिल्मों को पर्फेक्ट बनाने में विश्वास रखता है उसने भी कभी अच्छे लेखकों की ख़ुद तलाश की हो ऐसा लगता नहीं। बहुत हैं लेखक जनाब, आप खोजिए तो सही, अपने आसपास फ़िल्म वालों की संतानों या पैसे वालों की संतानों से परे जब मुंबई के गरीब इलाक़ों में रह रहे संघर्षरत लेखकों की तरफ़ नज़र डालेंगे तभी तो आपको पता चलेगा ना कि प्रतिभा कोठियों में नहीं छोटी सी कोठरियों में तपकर निकलती हैं। जावेद अख्तर को जावेद अख्तर उस जानलेवा संघर्ष ने बनाया है जब वे एल्फिंस्टन केव्स में रहे थे, जब तीन दिनों तक उनके पेट में एक दाना नहीं गया था और उन्हें इस एक खयाल ने ज़िंदा रखा था कि मैं यूं ही मरने के लिए नहीं आया हूँ। कम से कम लेखन में तो वो आग उसी में आती है जिसने ज़मीनी स्तर पर वो सब देखा हो जो कहानियों में होता है। जिन्हें बीएमडबल्यू की जगह मारुति कार होना गरीबी लगती हो, उनकी गरीबी इस देश की जनता के दिल को तो क्या छुएगी, वो कॉमेडी भी नहीं हो पाएगी। 

ये उम्मीद थोड़ी ज़्यादा हो जाएगी पर फिर भी उम्मीद है कि इस सिरीज़ के बाद किसी के अंदर तो ये खयाल पैदा हो कि यार फ़िल्म में सबसे महत्वपूर्ण चीज़ स्क्रिप्ट होती है। आप 600 करोड़ वीएफ़एक्स पर खर्च कर दो, वो लाइट एंड साउंड शो से ज़्यादा नहीं होगा। बिन आत्मा का शरीर मुर्दा ही कहलाएगा, चाहे लाख हीरे-मोती से सजा दो उसे। 

बहरहाल, ये सिरीज़ देखने लायक है। इसमें nostalgia है, मनोरंजन भी है, और कुछ गहरी बातें भी हैं, खास तौर पर जावेद साहब द्वारा अंत में कही गई चंद पंक्तियाँ जो इस सिरीज़ और इस जीवन दोनों का सार है। 

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