स्त्री 2 - सरकटे का आतंक


 

सरकटे को आधुनिक स्त्रियाँ पसंद नहीं हैं। वह मानता है कि स्त्री का काम घर का चूल्हा-चौका, झाड़ू-बुहारा ही है, उन्हें घर से बाहर निकालने की कोई ज़रूरत नहीं। इसीलिए वह हर आधुनिक स्त्री को कुल्टा और ...... वो शब्द जिसे मैं इस्तेमाल नहीं कर सकता, कहता है। वो हर सोश्ल मीडिया प्लेटफॉर्म पर उन्हें भद्दी-भद्दी गालियों से नवाजता है, उनका बलात्कार तक कर देने की धमकी देता है। 

अरे अरे, माफ़ करना मैं फिल्म से असल जीवन पर आ गया। पर मुझे तो यही लगा कि उसका हिडन अजेंडा मनुस्मृति को लागू करना है और इसीलिए वो अपने प्रभाव से चँदेरी के सभी पुरुषों को अपने वश में कर लेता है जो उसका ये अजेंडा घर-घर में लागू करवाते हैं और सरकटे को महान त्यागी और बलिदानी बताते हैं। आपको ऐसा नहीं लगता कि इस कहानी का चँदेरी भारत देश भी हो सकता है?

ख़ैर, ये तो मेटाफर की बात हो गई, फ़िल्म की करते हैं जो असल में इतनी गहरी बात कहती नहीं है जो हमने सोच ली, हाँ, कहने की कोशिश करती है पर वो व्यर्थ हो जाती है अपने ट्रीटमंट से। अपने नाम स्त्री को सार्थकता देने के चक्कर में स्त्री की आज़ादी का मुद्दा उठाने की कोशिश है जिसे प्रतीकात्मक रूप से कुछ दृश्यों में दिखाया गया है।

हाँ इसे पढ़ने के बाद स्त्री 2 के जो भक्त बन गए हैं वो ज़रूर गाली देंगे पर कुछ अलग नज़रिया भी सुन लिया जाये तो क्या हर्ज़ है? 

स्त्री 1 सभी को बहुत अच्छी लगी थी, मैंने खुद दो बार देखी है। सब कुछ पर्फेक्ट था उसमें, संतुलित। और इसीलिए स्त्री 2 का इंतज़ार बड़ा था। इस इंतज़ार को ही उसकी सफलता का आधा श्रेय दे दिया जाये तो गलत नहीं होगा। कुछ मार्केटिंग इतनी बढ़िया थी कि लोगों में अद्वितीय उत्साह था। ये उत्साह भी कई बार कमियों को छुपा देता है। मैं भी बड़ी उम्मीदों से देखने गया था, बावजूद इसके कि कई सुधि दर्शकों ने मना किया था। मैंने विश्व सिनेमा दिवस मनाया इस फिल्म के साथ और बहुत मायूस हुआ। पता नहीं क्यों, साधनों के अभव में इंसान बेहतर काम करता है और जब भरपूर साधन उपलब्ध हों तो मक्कार हो जाता है। स्त्री 1 के साथ पुरानी legacy नहीं थी और इसीलिए वो मुक्त रूप से बनाई गई थी लेकिन इस फिल्म को उस legacy का बोझ ढोना था, इसे डराना भी था और हँसाना भी था और ये एक बड़ा दबाव था, इसी चक्कर में लेखक और निर्देशक ने अतिरिक्त प्रयास किए और ये अतिरिक्त प्रयास ही इसकी जान ले गए। 

हालांकि स्त्री 1 और 2 में जो अंतर नज़र आता है उसका सबसे बड़ा कारण लेखक का बदल जाना है। स्त्री 1 को “राज और डीके” ने लिखा था जिनका अब तक का track रेकॉर्ड बहुत बढ़िया है। उनके लेखन में छिछोरपन नज़र नहीं आता कहीं जो स्त्री 2 में छलक-छलक पड़ता है। स्त्री 2 को लिखा है निरेन भट्ट ने जो बरसों से “तारक मेहता का उल्टा चश्मा” लिख रहे हैं इसीलिए इसकी कॉमेडी में वो जबर्दस्ती हँसाने की कोशिश दिखती है जो स्त्री1 में नहीं थी। स्त्री 1 की कॉमेडी सहज थी, परिस्थितिजन्य थी पर यहाँ लेखक जी तोड़ कोशिश कर रहा है कि एक भी सीन नहीं छोडूंगा हँसाए बिना। पर कॉमेडी की सबसे बड़ी ट्रैजिडि भी यही है कि जहाँ आपने कोशिश की हँसाने की वो फ़ेल हो जाती है, हास्य सहज रूप से परिस्थितियों से पैदा होता है। ये बात आप ऋषिकेश मुखर्जी की फ़िल्मों में महसूस कर सकते हैं। 

कहानी तो क्या बताऊँ सबको पता ही है, इसीलिए उससे इतर बातों पर ही चर्चा करेंगे। एक बेहतरीन अभिनेता को मसाला फ़िल्में किस तरह नीचे ले आती है इसका उदाहरण है राजकुमार राव। इतने नैसर्गिक अभिनेता हैं पर इसमें अभिनय करने की जी तोड़ कोशिश करते नज़र आते हैं। सिर्फ वही नहीं, सभी अभिनेताओं से ओवर एक्टिंग करवाई गई है श्रद्धा कपूर को छोडकर (क्योंकि वो मुझे अच्छी लगती है 😉)। पंकज त्रिपाठी अब सचमुझ अझेल होते जा रहे हैं। दृश्यों को बेवजह लंबा खींचा गया सिर्फ इस चक्कर में कि हर दृश्य में कुछ कॉमेडी का तड़का लगा दिया जाये। जिस जगह कॉमेडी फिल्म में भी कॉमेडी नहीं आ सकती उस जगह इस हॉरर फिल्म में कॉमेडी घुसा दी। इस वजह से हम किसी भी सीन को गंभीरता से ले ही नहीं पाते। climax में जब टेंशन बिल्ड अप हो ही रहा होता है कि बिक्की फिर बकमोदी करने लगता है। मतलब फिल्म को बहने ही नहीं दे रहे छिछोरी कॉमेडी के चक्कर में। जहाँ हँसाना है वहाँ हँसाओ लेकिन फिल्म में जहाँ आपको टेंशन बिल्ड अप करना है वहाँ तो बाज आओ। अंत में स्त्री की एंट्री भी बड़ी अजीब ही लगती है।

और हां, एक बात तो भूल ही गया, आप पागलखाने किसी के बारे में जानकारी लेने जाएंगे तो वहां स्टॉफ से पूछेंगे या सीधे पागलों से पूछने लगेंगे? इस सीन में कौन पागल हैं? जिन्हें पागल दिखाया वो, जिसने लिखा वो, या जो हँस रहा है वो?

एंट्री के मामले में तो ये फिल्म एपिक है, पहले अक्षय कुमार की एंट्री फिर भेड़िया भी आ गया, फिर स्त्री आ गई। वोल्वेरीन और डैडपूल को और ले आते तो मज़ा ही आ जाता। 

ख़ैर, जैसे-तैसे फ़िल्म अपने अंत को प्राप्त होती है लेकिन खतम नहीं होती। सरकटा मर गया भाई, अब क्रेडिट रोल करो और घर जाने दो पर नहीं अभी जेठालाल की बात बाकी है। पिक्चर खतम हुई और भेड़िया आ गया जो श्रद्धा कपूर से टाँका भिड़ाने की बात कर रहा है। चलो ये भी ठीक है, फिर एक भोजपुरी टाइप छपरी गाना आ गया जिस पर लोग आजकल झूम रहे हैं। चलो गाना तो आजकल रिवाज़ है, अब घर जाएँ? अरे नहीं अभी और सुनो, एक बार फिर अक्षय कुमार आ गया जिसे अगले पार्ट के लिए चुना है। चलो ठीक है अब जाएँ? अरे रुको तो भाई, भेड़िया को लड़की चाहिए और लड़की की सेटिंग ऑलरेडी बिक्की के साथ है तो इन दोनों का एक महा बोर गाना भी तो देखो। चलो दिखाओ।

अरे अब तो जाने दो माई बाप। चलो ठीक है तुम कहते हो तो जाने देते हैं वरना हम सोच रहे थे मुंज्या भी घुसेड़ ही दें इसमें। ज माई ला, भाग। 

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