त्रिभुवन मिश्रा सीए टॉपर - कॉमेडी थ्रिलर

 


कहानी चाहे जो हो, अगर आपके पास बेहतरीन अभिनेताओं की टीम है तो परिणाम बढ़िया ही होंगे। 

“त्रिभुवन मिश्रा सीए टॉपर” को आप पल्प फ़िक्शन कह सकते हैं। ये कहानी कभी सस्ते साहित्य में प्रकाशित सेक्स की फंटसी कहानियों की तरह है। एक सीधा-साधा मिडिल क्लास, ईमानदार आदमी है जो सेक्स की छुपी हुई दुनिया का स्टार बन जाता है। ये फंटसी ही है। लड़के, जिन्हें पहली बार पता चलता है कि दुनिया में पुरुष वैश्या जैसा कुछ भी होता है, बड़े रोमांचित होते हैं – आम के आम गुठलियों के दाम।

मगर अंधेरी गुफाओं में अंदर क्या-क्या होगा कोई नहीं कह सकता और इस तरह का कोई भी काम हो, उसमें पर्याप्त जोख़िम होता है। एक अंजाना रास्ता है जहाँ किस-किस तरह के मुसाफ़िरों से आपका सामना होगा, कोई नहीं कह सकता। मूलतः ये सिरीज़ कॉमेडी थ्रिलर है, जैसे आजकल हॉरर कॉमेडी चल रही है। लेकिन अगर इस विषय को गंभीरता से पेश किया जाये तो बहुत कुछ ऐसा है जो किसी को इस रास्ते जाने के लिए प्रोत्साहित नहीं, बल्कि हतोत्साहित करेगा। मैंने ऐसी एक कहानी लिख रखी है जो मैंने एक असल gigolo की आपबीती सुनकर लिखी थी। ये रास्ता भी अंततः वहीं जाता है जहाँ महिला वैश्याओं का रास्ता जाता है। 

ख़ैर, सीए टॉपर की कहानी है त्रिभुवन मिश्रा की जो एक विशुद्ध मध्यम वर्गीय, बिलकुल सीधा साधा पुरुष है, जिसकी एक अदद बीवी, दो प्यारे बच्चे, और ऑफिस में एक कमीना बॉस है। मिश्रा जीवन में कोई भी गलत काम नहीं करना चाहता है लेकिन एक बार परिस्थिति कुछ ऐसी बनती है कि वो चारों तरफ़ से फँस जाता है। जिस बैंक में उसका सारा पैसा है, वो डूब गया है और अब उसके सर पर ऐसे ख़र्च हैं कि उसकी जान पर बन आई है। दोस्त, रिश्तेदार सब उसे “चुगद” कहते हैं और हद तब हो जाती है जब एक दिन उसकी बीवी भी उसे चुगद कह देती है, ये कहकर कि काश उसके पास कोई हुनर होता जिससे कुछ अतिरिक्त पैसा तो आता। वो अपने अंदर उस हुनर की खोज करता है और कुदरत ने उसे एक विशेष हुनर से नवाज़ा है, बिस्तर में वो ऐसा पुरुष है जो एक स्त्री को हर तरह से संतुष्ट करे, इस दौरान वो अपना नहीं अपने साथी का सोचता है। ये वाकई बहुत कम लोगों के पास होता है। आम तौर पर या शेख अपनी अपनी देख की तर्ज़ पर पुरुष व्यवहार करते हैं। अपने इसी इकलौते हुनर के सहारे वो इस चुगद की उपाधि को हटाना चाहता है और वाकई ये हुनर उसे स्टार बना देता है। 

सफलता आपके व्यक्तित्व के हर पहलू से प्रकट होती है ये बात सही है। सफल व्यक्ति का अंदाज़ ही बदल जाता है, त्रिभुवन भी धीरे-धीरे बदलता जाता है, बोल्ड होता जाता है। अपने इसी adventure के दौरान वो एक डॉन “टीकाराम जैन” के आमने-सामने हो जाता है जिसकी पत्नी ने उसकी सेवाएँ ली हुई हैं। बस यहीं से उसकी इस मस्त यात्रा में अंधा मोड़ आता है। एक झूठ छुपाने के लिए सौ झूठ बोलने पड़ते हैं, वैसे ही एक अपराध से बचने के लिए दूसरे दलदल में आदमी धँसता जाता है। 

सिरीज़ बड़े मनोरंजक तरीके से इस पूरे घटनाक्रम को पेश करती है। इसे “मिर्ज़ापुर” के निर्माताओं ने ही बनाया है पर इस बार पूरी तरह से लुगदी नहीं है, कहीं-कहीं गहरी बातें भी कह दी गई हैं। मेरे लिए इसे देखने का सबसे बड़ा आकर्षण टीकाराम जैन का किरदार निभा रहे @shubhrajyoti Barat सर थे जिनके साथ मैं बागली टॉकीज कर चुका हूँ और तभी से उनका मुरीद हूँ। मिर्ज़ापुर में उनके किरदार रतिशंकर को बहुत कम समय मिलना सभी को खला था, उस गलती को इस सिरीज़ में सुधार लिया गया है और वे पूरी सिरीज़ में छाए हुए हैं। टीकाराम का किरदार उस स्टॉक कैरक्टर की तरह का खलनायक नहीं है जो हर हाल में सख़्त है। ये आम आदमी की तरह ही हँसता है, रोता है, मज़ाक करता है, गुस्सा होता है। पेशे से वो हलवाई है, वह अपनी पत्नी के बेवफ़ा होने पर रोता भी है, नाचता भी है..मतलब इस बार शुभ्रो सर की क्षमताओं का पूरा इस्तेमाल कर लिया है निर्देशक ने। मानव कौल, शुभ्रो सर और तिलोत्तमा शोम तो हाइलाइट हैं ही पर इनके आसपास के सारे किरदारों में पर्फेक्ट actors चुने गए हैं। पंचायत के बिनोद का अगर वही शरीर रहे पर उसकी आत्मा बदल दी जाये तो क्या होगा? उसमें एक गुंडे की आत्मा डाल दी जाये बस, तो वो ढेंचा झा बन जाएगा। अब बिनोद का appearance, बोलचाल वैसे ही रहेंगे बस वो गुस्सैल, गालीबाज़ हो जाएगा। इसी तरह पंचायत के प्रह्लाद चा के अंदर पुलिस वाला डाल दें तो फिर वो हैदर अली हो जाएगा। कुछ दृश्य वाकई बहुत ही बढ़िया बने हैं, कुछ में बरबस हँसी फूट पड़ती है। जैसे त्रिभुवन का अपनी सास को बंदूक दिखाकर धमकाना और अगले ही दिन सास का अपनी बहू के पास भी बंदूक देख लेना। श्वेता बसु प्रसाद ने बढ़िया काम किया है। सिरीज़ कुछ सामाजिक comments भी करती चलती है पर कहीं कहीं ये जबर्दस्ती डाला हुआ लगता है। कुछ sequence unnecessary हैं। अगर ढेंचा का समलैंगिक एंगल न भी जोड़ा जाता तो कहानी में कोई फर्क नहीं पड़ना था, क्या अब जिगरी दोस्त होना अतीत की बात हो गई है? क्या एक दोस्त की जुदाई तकलीफ देह नहीं हो सकती? उसके लिए दोस्तों में भी सेक्स ज़रूरी है क्या? पर ये एंगल अब फ़ैशन हो गया है। आज शोले बनती तो वीरू जय की याद में तभी रोता जब दोनों का एक intimate सीन दिखाया जाता वरना आदमी आदमी को क्या देगा? 

आखिरी दृश्य मुझे सिर्फ shock value बढ़ाने के लिए डाला हुआ लगा, वो कहानी के मॉरल को डाइल्यूट करता है। 

कुछ दृश्यों की staging बड़ी कमाल लगी जैसे gun fight के समय सभी का बंदूकें तानना। त्रिभुवन का धुएँ के बीच से बंदूक लिए प्रकट होना। ये चीज़ें फिल्म को visually rich बनाती हैं। 

कुल मिलाकर सिरीज़ देखने लायक है। storytelling भी बढ़िया है और performances तो कहना ही क्या।    

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टिप्पणियाँ

  1. बेनामी11:38 am

    आधी कहानी बता दी आपने

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    1. उतनी ही बताई जितनी बताने में कोई हर्ज नहीं, वो ट्रेलर से ही समझ आ जाती है।

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