वो वीसीआर का ज़माना, वो रात भर का फ़साना

 


80 के दशक में ये आम चलन हो गया था कि लोग रात भर के लिए वीसीआर किराये पर लाते थे और 3-4 फ़िल्में एक साथ देख डालते थे। 

रिवाज छुट्टियों में मामा-बुआ के घर जाने का भी था, सो हम भी अपनी बुआ के घर गए हुए थे। मेरी उम्र 6-7 साल रही होगी और फ़िल्में देखने का कीड़ा आज की ही तरह बलवान था उस वक़्त भी। एक दिन भगवान की कृपा से बड़ों को फ़िल्में देखने की खुजली हुई और तय रहा कि तीन फ़िल्में देखी जाएंगी रात को। अपनी तो चाँदी हो गई। पर तीन फिल्मों के नाम सुनकर थोड़ी सी चाँदी लोहा भी हो गई - श्री 420, गोपी और इंसाफ कौन करेगा। 

अपन को इनमें से सिर्फ "इंसाफ कौन करेगा" में ही इंटरेस्ट था पर फिल्म जो भी सामने आती उसे बिना देखे छोडते नहीं थे इसलिए देखनी तो सभी थी। इंसाफ कौन करेगा में धर्मेंद्र और रजनीकान्त थे तो भयंकर मारधाड़ होनी थी, और सबसे बड़ी बात, पूज्य अमरीश पुरी जी थे जो हमारे लिए उस समय हीरो से ज़्यादा महत्वपूर्ण थे, क्योंकि विलन नहीं होगा तो क्या मारधाड़ होगी? दिलीप कुमार और राज कपूर जैसे कमजोर हीरो से कोई उम्मीद नहीं थी, इनको तो कोई भी रेपटा लगा देगा।

दिल की धड़कनों को किनारा मिला जब रात हुई और हाय रे दुर्भाग्य, इंसाफ कौन करेगा को देखने के क्रम में तीसरे स्थान पर रखा गया था और उस वक़्त नींद हमारी सबसे बड़ी दुश्मन थी, फिर भी दिल को जागे रहने की ताकीद करके देखने बैठे, पहले शायद गोपी लगाई गई। हम तो फिल्मों को बिना पालक झपकाए देखते थे बस देखते रहे, देखते रहे और पलकें जब खुलीं तो सुबह हो गई थी। हम गोपी भी पूरी नहीं देख पाये थे, जाने कब लुढ़क गए। 

अब तो ऐसा लग रहा था कि दुनिया वीरान हो गई, सब कुछ लुट गया। मन रोऊँ-रोऊँ कर रहा था पर शरम के मारे रो भी नहीं सकते थे। पूरा दिन मनहूस निकला और इंसाफ कौन करेगा की कई दिनों तक याद आती रही। उसे देखने की अधूरी इच्छा मन के किसी कोने में दफ़न हो गई किसी पुरानी दुखती रग की तरह। 

वो फिल्म अब तक नहीं देख पाया और आज अचानक यूट्यूब पर सामने आ गई, शायद बचपन की इच्छा पूरी करने ही भगवान ने यूट्यूब पर दिखाई। 

तो आज हो सका तो इस फिल्म का छीछा लेदर करेंगे दोस्तों क्योंकि शुरुआत की थोड़ी सी फिल्म देख ली है, बढ़िया कॉमेडी है। 

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