धारावी - Everything is top notch


 

बस से सफर करते हुए धारावी के सामने से गुज़रा, मुझे याद आई फ़िल्म “धारावी” जो इसी स्लम की कहानी है, और जिसे मैंने अब तक नहीं देखा है। अब वहाँ कुछ बड़ी-बड़ी buildings भी नज़र आ रही थीं परंतु जब ये फ़िल्म बनी होगी तब ऐसा नहीं होगा। मेरे मन में जिज्ञासा पैदा हुई, उस समय की धारावी देखने की और बरसों से पेंडिंग लिस्ट में पड़ी फ़िल्म भी देख लेने की। संयोग की बात, शाम को ही यूट्यूब पर निर्देशक “सुधीर मिश्रा” का इंटरव्यू देखा जिसमें उन्होंने अपने उसी धारावी वाले रूप को फिर से खोजने की बात कही तो सोचा आज तो देख ही ली जाये।

फ़िल्म की सबसे ख़ास बात क्या है पता है? मुख्य धारा के सिनेमा का escapism और यथार्थ की दुनिया की क्रूरता साथ-साथ चलती है। मुख्य धारा सिनेमा का बहुत अच्छा उपयोग सुधीर मिश्रा ने किया है। फ़िल्म का ओपेनिंग सीन है जिसमें किसी building की छत से पूरी बस्ती दिखाई दे रही है। गुंडा इस बस्ती को जला डालने का हुक्म देता है और तभी अनिल कपूर की एंट्री होती है, कुछ मसालेदार dialogues के बाद अनिल कपूर सभी गुंडों को ढेर कर देता है। ये फंटेसी है जिसे एक विडियो हॉल में धारावी के लोग देख रहे हैं जिसमें राजकरण भी है जो फ़िल्मों का बेहद शौकीन है। यही फिल्में उसके सपनों को पंख देती हैं। पर सपनों की इस दुनिया से तुरंत धरातल पर आ जाते हैं जब फ़िल्म देखते हुए ही कुछ गुंडे इस विडियो पार्लर पर हमला कर के उसे जला देते हैं और लोगों को पीटने लगते हैं। ये बस्ती की दो gangs की आपसी रंजिश है जिसके बीच बस्ती के लोग जी रहे हैं। यहाँ कोई अनिल कपूर नहीं है जो इन गुंडों को मिनटों में धराशायी कर दे, यहाँ तो फ़िल्म में ये सीन देखकर फिर गुंडों को पैसा देना ही है चुपचाप।

राजकरण की पत्नी है कुमुद (शबाना आज़मी), उनका एक बेटा है। राजकरण टैक्सी चलाता है, उसकी अपनी टैक्सी और उसका सपना है एक फ़ैक्टरि, कपड़ों को रंगने वाली जो बिक्री में है। वो अपना व्यवसाय खड़ा करके इस ज़िंदगी से बाहर निकलना चाहता है जहाँ लोग कीड़े-मकोड़ों की तरह जी रहे हैं। दो बाल्टी पानी के लिए भी भाई को पैसा देना पड़ता है। इस सपने में एक और सपना उसका हौसला है। अपने सपने में वो माधुरी दीक्षित को अपनी प्रेयसी के रूप में देखता है जो उसे इतना प्यार करती है कि हक़ीक़त की सारी कड़वाहट वो भूल जाता है। उसे अपनी योजनाएँ बताता है, अपनी झूठी बहादुरी के किस्से सुनाता है जिस पर वो वारी-वारी जाती है। उसका साला है चास्कर जो बस्ती वालों के हक़ के लिए हमेशा गुंडों से उलझता रहता है।

किस तरह अपने इस सपने को पूरा करने का जुनून राजकरण को एक चक्रव्यूह में फँसा देता है और कैसे वो सब कुछ गँवाकर खाली हाथ रह जाता है, पर उसकी माधुरी दीक्षित और उसका वो सपना अब भी उसके साथ है।

ये फ़िल्म 1992 में रिलीज़ हुई थी जो इस तरह की फ़िल्मों के लिए बिलकुल विपरीत समय था। ओमपुरी को हीरो के रूप में देखने कौन सिनेमा हॉल जाएगा? हालाँकि इस मायने में तो आज भी वक़्त वहीं ठहरा है। पर कहानी और उसके ट्रीटमंट की दृष्टि से ये आज की फ़िल्म है। आज इस तरह की फ़िल्में बनती हैं और सराही जाती हैं। ख़ैर, सराही तो उस वक़्त भी गई थी, पर कला फ़िल्म के रूप में जो एक अलग धारा थी और इसी धारा की फ़िल्मों को तब राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होते थे जो इसे भी मिला - सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का। आज इसे वो पुरस्कार नहीं मिलता क्योंकि अब कांतारा जैसी फ़िल्मों और अक्षय कुमार जैसे अनभिनेताओं को मिलता है।

इस फ़िल्म में सब कुछ अपने उच्चतम स्तर पर है, क्या तो अभिनय, क्या तो सिनेमैटोग्राफी, क्या लेखन और क्या निर्देशन। ओमपुरी निर्विवाद रूप से इस देश के महानतम अभिनेताओं में एक हैं और शबाना आज़मी उसी लैवल पर उनका साथ देती हैं। बस्ती को इस तरह capture किया है कि इसे देखते हुए आप उसी बस्ती में जी रहे होते हैं और आप खुद उससे बाहर निकलना चाहते हैं। राजकरण का सपना ऐसा रिलीफ़ है जो आपको भी रिलीफ़ देता है। क्या सच में ऐसा ही नहीं होता है? माधुरी बहुत ही खूबसूरत लगी हैं, वाकई आपको सपनों की दुनिया में ले जाने वाली।

फ़िल्में आपको अपनी वास्तविक समस्याओं से कुछ समय के लिए मुक्त करती हैं, सपनों की एक दुनिया देती हैं। अनिल कपूर पूरी gang का सफाया कर देता है लेकिन असल में आपको वो gang तबाह कर देती है। आप नेताओं के पास अपनी गुहार लगाने के लिए उनके दरवाजों पर खड़े इंतज़ार करते रह जाते हैं और ये गुंडे उनके साथ नाश्ता करके बाहर आते नज़र आते हैं। irony!

फ़िल्म के पार्श्व संगीत की बड़ी तारीफ़ें हुई थीं लेकिन आज के वक़्त को ध्यान में रखते हुए वो इसे बड़ी dull feeling देता है। सारंगी का बहुत उपयोग है जो उदास करता है। अगर आज इसे रिलीज़ किया जाये बदले हुए बैक्ग्राउण्ड म्यूजिक के साथ तो फिर एक बार लोग देखेंगे। जहाँ फालतू फ़िल्में फिर से रिलीज़ की जा रही हैं, इस तरह की फ़िल्मों को भी थोड़े बदले हुए ट्रीटमंट के साथ try करना चाहिए।

सुधीर मिश्रा मेरे प्रिय निर्देशक हैं। उनमें भावों को उकेरने की जो क्षमता है वो बहुत कम निर्देशकों में होती है। हजारों ख्वाहिशें ऐसी के साथ धारावी उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना है।

अगर आपने नहीं देखी है तो highly recommended है। यूट्यूब पर ही उपलब्ध है।

#Dharavi #Ompuri #shabanaAzmi #SudhirMishra #filmreview #moviereview

टिप्पणियाँ