मानवत मर्डर्स - सच्ची घटना

 


मैंने हिन्दी समझ कर देखना शुरू की, पर कुछ देर देखने के बाद समझ आया कि यार डाइलॉग बहुत ही वाहियात हैं, लिप सिंक भी नहीं हो रहा, तब जा के टीपा कि ये कोई और लैड्ग्वेज की सिरीज़ है। चूँकि मराठी मैं समझ लेता हूँ, तो फिर असल भाषा में ही लगाई और चैन आया। 

दुनिया कितनी भी तरक्की कर ले पर ये हिन्दी डबिंग करने वाले 8-10 लोग जो बरसों से फिक्स हैं, ये घास ही काटेंगे हमेशा। अच्छी से अच्छी फ़िल्म की ऐसी-तैसी कर देते हैं। 

ख़ैर, हम मुद्दे पर लौटते हैं। मैंने देखी “मानवत मर्डर्स” सोनी लिव पर। सिरीज़ कैसी है, वो तो बात करेंगे ही लेकिन इस सिरीज़ से जो सवाल उठते हैं वो और भी महत्वपूर्ण हैं। ये 1972 की एक वास्तविक घटना पर आधारित है। महाराष्ट्र के एक गाँव में एक के बाद एक सात ख़ून हुए थे, जिसकी तफ़्तीश करने मुंबई से एक अधिकारी को भेजा गया था। उसी अधिकारी की लिखी किताब पर आधारित है ये सिरीज़। 4 बच्चियाँ और तीन औरतें मारी गई थीं। दो बच्चियों का तो बलात्कार भी हुआ था।

लगातार सात जघन्य हत्याएँ होने के बाद भी लोकल पुलिस कुछ कर नहीं पा रही है तब क्राइम ब्रांच के वरिष्ठ अफ़सर कुलकर्णी को वहाँ भेजा जाता है जो एक बेहद कुशल अफ़सर है। महकमे में दूर-दूर तक पुलिस वाले उसे अपना आदर्श मानते हैं, पर ये एक ऐसा केस था जो इस कुशल अफ़सर के भी पसीने छुड़ाने वाला था। गाँव में पहुँच कर जाँच शुरू होती है, उसमें बहुत सी चीज़ें सामने आती हैं, बहुत से सच उघड़ जाते हैं, गाँव के, गाँव के लोगों के, पुलिस के और समाज के। 

जो कहते हैं कि आज लोग बुरे हैं, पहले का ज़माना अच्छा था। काश कि कोई टाइम मशीन होती और इन्हें पहले के समय में पहुँचा दिया जाता तो समझ आता। एक अंधा युग था, ख़ास तौर पर गाँवों में। जात-पात का जानलेवा भेदभाव, अंधविश्वासों में जकड़ा एक-एक इंसान और सुविधा के नाम पर कुछ भी नहीं। जिन्हें अतीत की चर्बी चढ़ी है उन्हें अतीत में ही भेज दिया जाये। सिरीज़ ने बहुत विश्वसनीय तरीक़े से गाँव और उस समय-काल को capture किया है। आर्ट डिज़ाइन और lighting बढ़िया है। ये सिरीज़ देखने लायक है इसके performances के लिए। मुझे किसी समय सोनाली कुलकर्णी बहुत पसंद थी, और इसे देखकर एक बार फिर पसंद आने लगी। अफ़सोस की बात है कि उन्हें हिन्दी में उतने अवसर नहीं मिले। सिर्फ़ एक “दिल चाहता है” ही उनके नाम दर्ज़ है पर बेहद उत्कृष्ट अदाकारा हैं इसमें कोई दो राय नहीं। एक फ़िल्म है जो गुमनाम हो गई पर बेहतरीन फ़िल्म थी “दंश”, अगर आपको कहीं मिले तो ज़रूर देखिये। पर इस शो की शो स्टीलर हैं साई तामहणकर, कोई कह ही नहीं सकता कि ये औरत अभिनय कर रही है, वो समीन्द्रिबाई ही थी। उनके पास स्क्रीन टाइम भी ज़्यादा आया है। सोनाली कुलकर्णी उतनी नज़र नहीं आती पर जब भी आती हैं, कमाल करती हैं। मराठी अभिनेता मकरंद अनसपुरे का काम अद्भुत है, इस किरदार को जो कमीनापन चाहिए वो उनकी आँखों से झलकता है। आशुतोष गोवारीकर इसके सर्प्राइज़ एलिमंट हैं। बरसों बाद उन्होंने फिर परदे पर वापसी की है। उन्हें देख-देख कर मुझे फ़िल्म नाम का वो टैक्सी ड्राईवर याद आता रहा। बस उनकी विग पर थोड़ा और काम करना चाहिए था।

वैसे तो picturization अच्छा ही है पर थोड़ा और बजट होता तो और भी अच्छा होता। निर्देशन में खामियाँ हैं, कहीं-कहीं खींची हुई लगती है। इस विषय को और भी रोचक तरीके से पेश किया जा सकता था। स्पीड बड़ी समस्या है। थोड़ी और layers होतीं तो विषय का दायरा बड़ा हो सकता था।

हमारे देश की, विशेष तौर पर गाँवों की हक़ीक़त यही थी। 15 रुपये और एक क्वार्टर किसी की भी जान की कीमत थी। भुखमरी थी, गरीबी थी, इस गरीबी का फायदा उठाने वाले थे, और इन सबको मूर्ख बनाकर पैसा कमाने वाले नीच ओझा-तांत्रिक थे। लोग डॉक्टर के पास तो नहीं ही जाते थे, इन ओझाओं के पास जाकर अपनी बीमारी ठीक होने की उम्मीद करते थे। ये तांत्रिक थोड़े से पैसों और दारू के लिए किसी की जान भी ले सकते थे और धर्म के नाम पर इन्हें कोई कुछ नहीं कह सकता था। आज ये ओझा बड़े level पर खेल रहे हैं, ये इंसान से भी आगे देश की किस्मत मंत्र से बदलने का झाँसा दे रहे हैं और आज इनकी कीमत अद्धा-पव्वा नहीं है, पूरा देश है। हम उस दलदल से मुश्किलों से बाहर निकलते नज़र आ रहे थे, गाँवों में भी थोड़ी जागृति आनी शुरू हुई थी पर अचानक reverse gear लग गया, हम वहीं लौट गए और अबकी सिर्फ गाँव ही नहीं, महानगर तक इस गंदगी में लिथड़े गए। कुकुरमुत्तों की तरह बाबा उग आए और समस्याओं को चमिटे से भगाने लगे तो कोई परीक्षाओं में आक के पत्ते से पास करवाने लगा। लोग इसके या उसके चरणों में लोट लगाए पड़े हैं पर मेहनत नहीं करना चाहते। पत्ते से पास हो जाएंगे तो पढ़ाई की मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। और सबसे बड़ी बात ये है कि इन पाखंडियों को इनके इन शिकारों की ही सुरक्षा प्राप्त है। अभी ये पंक्तियाँ पढ़कर ही कुछ लोग विष वमन करने आ जाएंगे।

अभी कुछ ही दिनों पहले की खबर है कि उत्तरप्रदेश के एक स्कूल ने एक बच्चे की बलि दी। हम तो जानवरों की बलि को भी समाप्त कर आए थे फिर ये दौर वापस कैसे आ गया? इसे ऐसा बना दिया गया है और ये बढ़ता जाएगा जब तक एक बार फिर अराजकता का साम्राज्य न हो जाये। 

बहरहाल, सिरीज़ एक बार देखी जाने लायक है। 

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