लॉन्गलेग्स याने लंबे पाँव। लंबे हाथ कानून के होते हैं, तो बताइये लंबे पाँव किसके होंगे?
मेरी तरफ़ मत देखिये, मुझे नहीं पता। जी हाँ, फिल्म देख लेने के बाद भी नहीं पता। आज यूँ ही स्क्रॉल करते हुए नज़र पड़ी और चूँकि कुछ समय पहले ही रिलीज़ हुई थी और एक बड़े फ़िल्म समीक्षक से मुलाक़ात की बात चल रही थी तो उन्होंने ज़िक्र किया था कि कल तो मैं “लोंगलेग्स” देखने जा रहा हूँ। बस वही एक बात अटक गई थी जिसने “ओके” का बटन दबवा दिया।
अब समझ नहीं आ रहा कि कहूँ क्या? मैं पूरी फ़िल्म देख गया, ईमानदारी से कहूँ तो बोर भी नहीं हुआ पर फ़िल्म पूरी देख जाने के बाद हासिल क्या?
“सिफ़र”
न मेरे अंदर की क्रिएटिव खुजली को आराम मिला, न एक अच्छी फ़िल्म देख लेने के बाद जो एक ख़ुमार सा महसूस होता है, वो हुआ। पर फिर मैं सोचता हूँ कि बोर तो नहीं ही थी। ऐसी फ़िल्मों में क़त्ल की वजह, अगर वो obvious न हो, जानने की जिज्ञासा ही पूरी फ़िल्म दिखा देती है।
लॉन्गलेग्स “हॉरर” फ़िल्म है, ज़ाहिर है डराना उसका धर्म है पर फ़िल्म डरा ही नहीं पाई। बस जिज्ञासा ज़रूर पैदा कर पाई कि जो हो रहा है, वो आख़िर क्यों हो रहा है? और फ़िल्म का जो मुख्य किरदार है वो ऐसा सुमड़ा सा क्यों है? फ़िल्म में पुलिस एक केस की छान-बीन कर रही है। 1966 से वहाँ लगभग 20 केस ऐसे हो चुके हैं जिसमें किसी परिवार के ही एक सदस्य ने पूरे के पूरे परिवार की हत्या करके खुद को भी मार लिया। और हर बार उस जगह पर एक पत्र मिलता है, जिसकी भाषा अनजानी है, और पत्र के अंत में नाम “लॉन्गलेग्स” लिखा होता है। मतलब ये कोई है जो मार रहा है लेकिन किसी भी जगह पर किसी बाहरी आदमी के अंदर आने के कोई सबूत नहीं मिलते। बस इसी लॉन्गलेग्स की गुत्थी सुलझाने की कहानी है जिसमें संगीत, फुसफुसाहट और कहीं-कहीं बेवजह अंधेरे में किसी को दिखाकर डर पैदा करने की कोशिश की गई है। कहानी के अंत में जब सब कुछ पता चल जाता है, उसके बाद की घटना तो बिलकुल ही अतार्किक है। हॉलीवुड भी सारी फ़िल्में अच्छी नहीं बनाता है, उनके अपने रामसे बंधु हैं।
मगर फिर भी उनका बनाने का तरीका इंटरेस्ट बनाए रखता है, चाहे अंत में आप अपना सर पीट लें।
किसी को बस टाइम पास ही करना हो तो देख सकते हैं।
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