अलविदा उस्ताद


 

हम एक साथ खुशकिस्मत पीढ़ी भी हैं और बदकिस्मत भी। 

खुशकिस्मत इस मायने में कि हमने अपने बचपन से उन हस्तियों को देखा, जाना है जिन्होंने अपने साज़ के नाम को अपने नाम का पर्याय बना दिया। कितना भव्य, कितना अद्भुत ये दौर रहा है जब बांसुरी का मतलब हरिप्रसाद चौरसिया, संतूर का मतलब शिव कुमार शर्मा, शहनाई का मतलब उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान, सरोद का मतलब उस्ताद अमजद अली ख़ान, और तबले का मतलब ज़ाकिर हुसैन हो गया। ये विरले ही होता है कि कोई कलाकार अपनी कला के साथ एकाकार हो जाये। और यूँ ही नहीं कोई उस ऊँचाई को प्राप्त कर लेता है। साज़ यूँ ही अपना नाम अपने वादक को नहीं देता। उसके साथ एक उम्र बितानी होती है, साधना करनी होती है तब साज़ इजाज़त देता है उसे जैसे चाहे वैसे बजाने की। 

और बदकिस्मत हम इस मायने में हैं कि एक-एक कर इन नायाब शख़्सियतों को अपने सामने जाते देख रहे हैं। दिल बहुत दुखता है, कुछ भारी नुकसान हो गया सा प्रतीत होता है पर हम कुछ नहीं कर सकते। 

उस्ताद ज़ाकिर हुसैन से पहला परिचय तो “वाह ताज” से ही हुआ था बचपन में। उस वक़्त तो इतनी समझ नहीं थी कि आख़िर क्यों एक तबला वादक को विज्ञापन का चेहरा बनाया गया होगा? क्योंकि विज्ञापन का चेहरा तो वही होता है जो बिकता है, कोई स्टार। ये भी स्टार थे ये बाद में समझ आता गया। न सिर्फ अपने साज़ के लिए बल्कि अपने अंदाज़ के लिए भी। घने, घुँघराले बालों की लट जब तबले के सम पर आगे झूल जाती तो निकाल ही जाता “वाह उस्ताद वाह”। इसे तबला वादकों के लिए एक स्टाइल बना देने का श्रेय भी उस्ताद को ही है। 

उस्ताद के पिता भी बड़े उस्ताद थे “अल्लाह रक्खा ख़ान साहब”। वे चाहते थे बेटा भी तबला वादक बने पर बेटे को क्रिकेट का भूत सवार था। क्रिकेट खेलते हुए जब एक बार उनकी उँगलियों में चोट लगी तो पिता के दिल पर वो चोट पहुँची, बेटे को खूब पीटा भी। क्योंकि एक तबला वादक के लिए उसकी उँगलियाँ बेशकीमती हैं। धीरे-धीरे ज़ाकिर हुसैन पर तबले का जुनून हावी होता गया और इस कदर हुआ कि कहा जाता है कि एक बार रियाज़ करते-करते उनकी उँगलियों से ख़ून आने लगा था। इस हद तक पहुँच कर ही सरस्वती का आशीर्वाद प्राप्र्त होता है, जो हुआ। अफ़सोस मुझे इस बात का है कि मैं इन कलाकारों को ज़्यादा नहीं देख पाया लेकिन सुकून ये भी है कि कुछ मर्तबा तो ये गौरव हासिल हुआ है जब मैंने सामने बैठकर इन्हें सुना है। आने वाली पीढ़ी को हम गर्व से बता सकेंगे कि हमने उस्ताद ज़ाकिर हुसैन को सामने से देखा है, उन्हें सुना है। 

अभी जाने का वक़्त नहीं था, 73 साल कोई बहुत ज़्यादा उम्र नहीं होती, पर इतने समय में आपने हमें एक खजाना दिया है, आप उस ख़ज़ाने में हमेशा जीवित रहेंगे। 

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