वेदा - अच्छी एक्शन फ़िल्म

 


सच्ची एक्शन फ़िल्में बहुत दुर्लभ हैं बॉलीवुड में। जिन फ़िल्मों को एक्शन फ़िल्में कहकर बनाया जाता है, वे विडियो गेम से ज़्यादा कुछ नहीं होती। एक अच्छी एक्शन फ़िल्म के एक्शन के लिए बहुत स्ट्रॉंग मोटिव चाहिए होता है। बिना “स्ट्रॉंग” मोटिव के वो एक्शन कसरत से ज़्यादा कुछ नहीं लगता और थका देने वाला होता है, दर्शकों के लिए भी। जबकि एक उद्देश्य को लेकर चली कहानी में एक्शन दर्शक की भावनाओं को मथ देता है, जिसके फलस्वरूप दर्शक ख़ुद अपने अवचेतन में उस एक्शन में शामिल हो जाता है। वो परदे पर होते अन्याय, अत्याचार से जुड़ जाता है, वो उसके अपने अनुभव का हिस्सा बन कर उसे गुस्सा दिलाते हैं। 

इस तरह की फ़िल्म बनाने के लिए कुछ बातों का ध्यान रखना निहायत ही ज़रूरी होता है। फ़िल्म की टोन शुरू से ही स्थापित हो जानी चाहिए जबकि अधिकांश मसाला फ़िल्मों में किया ये जाता है कि पहले कॉमेडी, रोमैन्स वगैरह से बहुत हल्का माहौल बनाया जाता है और फिर अचानक गुत्थम-गुत्था हो जाते हैं। नहीं, अगर एक्शन ही फ़िल्म का केंद्रीय भाव है तो वो गंभीर टोन उसे पहले ही दृश्य से अपना लेनी होती है। आपने घातक देखी हो तो फ़िल्म में शुरुआत से ही कात्या के आतंक का साया नज़र आता है। दर्शक के अंदर एक धुकधुकी सी पैदा हो जाती है, कि कभी भी, कुछ भी हो सकता है। और ये जो कुछ भी घट रहा है, किसी भी वक़्त इसका परिणाम एक विस्फोट में बदल सकता है। 

“वेदा” की सबसे बड़ी सफलता इसी बिन्दु पर है। फ़िल्म बिना समय व्यर्थ गँवाए शुरू से ही मुद्दे पर आती है। एक आतंक का साया शुरू से ही नज़र आता है, जिसे भव्य स्वरूप दिया है वाइड शॉट्स ने। “वेदा” कहानी है “वेदा बैरवा” की जो राजस्थान के बाड़मेर में रहती है, मगर ये कहानी उस सभी की है जो ऐसी किसी भी जगह पर रहते हैं जहां जाति का ज़हर अब भी समाज में फ़ैला हुआ है। वेदा अछूत समुदाय से आती है इसलिए उसके साथ कॉलेज में भी भेदभाव होता है, कॉलेज जिस पर वर्चस्व है जितेंद्र प्रताप सिंह का। वेदा को जितेंद्र का भाई और उसके गुंडे हमेशा परेशान करते रहते हैं। कॉलेज में एक बॉक्सिंग क्लब बनता है जहाँ वेदा भी बॉक्सिंग सीखना चाहती है, पर उसके दलित होने की वजह से उसे सीखने नहीं दिया जाता। इस सब के बीच है मेजर अभिमन्यु कंवर जिसे सेना ने कोर्ट मार्शल कर दिया है। वो इस गाँव में आकर बॉक्सिंग के लिए असिस्टेंट कोच बन जाता है। उसके सामने वेदा पर अत्याचार होता है। जब उसके परिवार के साथ जघन्य कांड हो जाता है तब मेजर जितेंद्र प्रताप सिंह से आमने-सामने की लड़ाई शुरू कर देता है। 

एक्शन फिल्म का बैकड्रॉप एक सामाजिक मुद्दे को लेकर उसे सफलतापूर्वक सार्थक बना दिया गया है। ये छूआ-छूत आज भी हमारे समाज की काली सच्चाई है। कुछ शुतुरमुर्ग हैं जो आएंगे कहने कि अब ऐसा नहीं होता, हालाँकि उनके अपने घर में ऐसा होता है। किसी इंसान के साथ इस तरह का व्यवहार प्रकृति के भी खिलाफ़ है लेकिन क्या करें हमारे विश्व गुरु देश में इंसान ही इंसान को नीचा समझता है, उसे छूना भी पाप समझता है। 

“वेदा” बॉक्सिंग सीखकर अपने ऊपर हो रहे अत्याचार का मुकाबला करने का सोच रही है लेकिन इस काबिल बनने के लिए ही उसे बहुत कुछ झेलना है। “शरवरी वाघ” ने कमाल कर दिया है, गजब का परफॉर्मेंस है। मैंने उन्हें पहली बार “मुंज्या” में देखा था और बहुत प्रभावित हुआ था, इसमें तो फ़िल्म उन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती है। नई अभिनेत्रियों में वे सबसे सशक्त अभिनेत्री बनकर उभर रही हैं। इसमें केमियो “तमन्ना भाटिया” का भी है पर ये उस समय की बात है जब “आज की रात मज़ा इश्क़ का आया नहीं था” और इस केमियो को देखकर लगा कि वे आइटम सॉन्ग के लिए ही बेहतर हैं, न तो सादे कपड़ों में आकर्षक लगती हैं और न ही अभिनय नाम की चीज़ है उनके पास। कुमुद मिश्रा को देखकर लगा कि कुछ महत्वपूर्ण होने वाला है पर शायद उस बिलकुल ही छोटे से किरदार में उन्हें दर्शकों को ऐसा भुलावा देने के लिए ही लिया गया था। मुझे आश्चर्य है कि उन्होंने इतना मामूली किरदार कैसे कर लिया। “अभिषेक बनर्जी” आगे बढ़ते ही जा रहे हैं। कॉमेडी करते-करते मुख्य खलनायक तक पहुँच गए हैं, वो भी जॉन अब्राहम के सामने। और अपनी दुबली-पतली काया के बावजूद वे प्रभावित करते हैं। उन्होंने बतौर अभिनेता अपने आप को साबित कर दिया है। 

अब बात करें “जॉन अब्राहम” की, तो मैंने सिर्फ इसी एक नाम की वजह से ये फ़िल्म अब तक नहीं देखी थी। पर “मद्रास कफ़े” के बाद ये दूसरी फ़िल्म है उनकी जो मुझे अच्छी लगी। उनका स्टोन फ़ेस मुझसे नहीं झिलाता है पर इस फ़िल्म में वही किरदार की माँग थी। उस पत्थर से चेहरे के साथ चट्टान सा शरीर हर तरह के एक्शन को संभव बना देता है। मुझे पहली बार जॉन अब्राहम किसी फ़िल्म में अच्छे लगे हैं। 

गाने झेलने के काबिल नहीं हैं, मैंने आगे बढ़ा दिये। बैक्ग्राउण्ड म्यूजिक अच्छा है। 

निखिल आडवाणी का निर्देशन बहुत बढ़िया है। कुछ शॉट्स तो बेहतरीन लिए हैं जैसे एक फाइट sequence जिसे ऊपर से लिया गया है जब नीचे एक कमरे से दूसरे कमरे में फाइट करते हुए जा रहे है। या जब वेदा को कुछ लड़के पीट रहे हैं तो अचानक extreme wide शॉट आ जाता है जो उसे एक अलग ही फ़ील दे देता है। फ़िल्म में बहुत से cliché हैं पर ओवर ऑल impact अच्छा है तो वे चल जाते हैं, हालाँकि थोड़ी और मेहनत की जाति लिखने में तो और भी बेहतर हो सकती थी। ऐसी कहानियाँ हमने बहुत देखी हैं लेकिन अगर अच्छी तरह से बनाई जाये तो एक अलग रंग में फिर से देखना बुरा नहीं लगता। 

अब कानून व्यवस्था से हम इतने बेजार हो चुके हैं कि फ़िल्म के अंत से सहमत नहीं हो पाते, हमें उम्मीद बिलकुल पैदा नहीं होती कि वेदा को न्याय मिलेगा। 

बढ़िया फ़िल्म है, ज़ी5 पर उपलब्ध है। 

#Vedaa #johnabraham #sharvariwagh #Zee5 #tamannabhatia #JohnAbraham #moviereview #filmreview #NikhilAdvani

टिप्पणियाँ