The Railway Men - A gem from YRF

 


Movie Review

हमारे असली नायक तो है इफ़्तेखार सिद्दीक़ी, रति पांडे, इमाद ख़ान, बलवंत यादव या जगमोहन कुमावत, या कम से कम अब तक थे। थे इसलिए कि भारत का आगे का रास्ता गंभीर पतन का है जिसकी शुरुआत कुछ बरसों पहले हुई थी। अब हमारे हीरो वे नहीं रहे जो जान बचाते हैं, अब हीरो जान लेते हैं, वो भी बड़ी क्रूरता से। ये भारत में gladiator युग की स्थापना का समय है, जहां मैदान में कुछ लोग एक दूसरे को जान से मारते हैं और जनता उन्माद में भरकर तालियाँ बजाती है। फ़िल्मों में एनिमल और असल ज़िंदगी में जिस तरह के लोगों की उन्मादी सफलता देख रहे हैं वो तो इसी तरफ़ इंगित करती है। 

ये नया भारत उन्हीं को मुबारक़, हमारी तो अब भी आँखें भीग जाती हैं जब इफ़्तेखार सिद्दीक़ी मरने की कगार पर है मगर फ़िर भी उसे मलाल है कि वह बहुत सी जानें नहीं बचा सका, जब एक चोर अपना चोरी का माल वापस तिजोरी में रख जाता है सिर्फ उस एक आदमी के नाम पर दाग़ न लगने देने के लिए जो अब मर चुका है, जब एक पत्रकार हज़ारों लोगों को एक-एक कर मरते देख बेबसी के आँसू बहाने लगता है और जब एक मामूली सा रेल कर्मचारी आखरी साँस तब लेता है जब हज़ारों और लोगों की साँसें बचा चुका होता है। हमारे हीरो किसी जाति, किसी धर्म से नहीं होते, वे ख़ालिस इंसान होते हैं। हाँ, जानता हूँ, हम अल्पसंख्यक हो चुके हैं पर क्या करें, ये हमारी बनावट की तकनीकी गलती है। 

जैसे हमारे हीरो अलग हैं वैसे ही हमारी फिल्में “द रेल्वे मैन” की तरह की हैं। हम आज भी ऐसी फ़िल्मों पर क़ुरबान जाते हैं। “द रेल्वे मैन” का बन पाना और फिर सफ़ल भी होना क्या इस बात का संकेत माना जा सकता है कि ओटीटी अब गाली-गलौज, सेक्स और हिंसा से कुछ गंभीरता की तरफ़ बढ़ चला है? या दर्शकों की समझ बढ़ गई है? बच्चों सी बातें करते हो। ये सब बीच-बीच में होता रहता है। राजनीति में भी हम कुछ अच्छी बातों से अति उत्साह से भरकर युग परिवर्तन की हाँकने लगते हैं। ऐसा कुछ नहीं होगा, विश्वास रखिए। अब कोई भोपाल हादसा होगा तो कोई इफ़्तेखार नहीं होगा, कोई रति पांडे नहीं होगा। छोड़ आए हम वो गलियाँ। मैं फिर भटक रहा हूँ है ना? क्या करें मन थोड़ा विचलित है।



चलिये मुद्दे की बात करते हैं। “द रेल्वे मैन” 1984 में हुए भोपाल गैस कांड पर आधारित है सभी जानते हैं, और उस कांड के बारे में भी सभी जानते हैं। हालाँकि इतना विस्तार से किसी को नहीं पता। ये एचबीओ की सिरीज़ “the Chernobyl” की तरह की ही सिरीज़ है। सिर्फ़ एक रात की कहानी जिसमें आपको ये बताना है कि उस हादसे की भयावहता कितनी थी और वो आम लोग कौन थे जिन्होने अपनी जान की परवाह छोड़, दूसरे हजारों लोगों की जान की फिक्र की? ये वो वक़्त था जब भारत में पेस्टिसाइड्स का उपयोग ना के बराबर होता था और “यूनियन कार्बाइड” उन्हीं पेस्टिसाइड्स को बनाती थी। ज़ाहिर है धंधा कुछ खास नहीं था। धंधे में मुनाफ़ा नहीं हो रहा था सो फैक्ट्री के मालिकों का भी उस पर कोई विशेष ध्यान नहीं था। वहाँ सुरक्षा में गंभीर खामियाँ थीं। और ये हमारी फितरत ही है कि जब तक कुछ गंभीर न घट जाये, हम नींद से नहीं जागते। ऐसा भी नहीं कि एक हादसे के बाद ये फितरत बदल गई हो, आज भी वही हो रहा है। असल ज़िंदगी  में पत्रकार “राजकुमार केसवानी” कई बार इस फैक्ट्री के खतरों के लिए आगाह कर चुके थे लेकिन कोई कार्यवाही नहीं हो रही थी। सिरीज़ में राजकुमार केसवानी का किरदार सनी हिंदूजा ने “जगमोहन कुमावत” के नाम से निभाया है। तो 2 दिसम्बर 1984 की रात फैक्ट्री से गैस लीक होती है। हवा में जहर फ़ेल जाता है, ऐसा जहर जो कुछ ही मिनटों में आपकी जान ले सकता है। लोगों का दम घुटने लगता है और भगदड़ मच जाती है। लोग शहर छोडकर जाने लगते हैं। भोपाल के स्टेशन मास्टर को इफ़्तेखार जब इस परिस्थिति का ज्ञान होता है तो वे लोगों को बचाने में जुट जाते हैं। ये परवाह किए बगैर कि उनकी खुद की जान बचने की कोई संभावना नहीं अगर उन्होने ऐसा किया। उसी वक़्त स्टेशन की तिजोरी को लूटने बलवंत यादव आया हुआ है एक कांस्टेबल का भेस बनाकर लेकिन जब उसकी नज़रों के सामने लोग गिर-गिरकर मरने लगते हैं तो वह स्टेशन मास्टर के साथ उनकी जान बचाने में जुट जाता है। इमाद रियाज़ नया-नया रेल्वे में लगा है, यूनियन कार्बाइड से अपनी ईमानदारी के चलते ही बाहर हुआ था। उसी ने कुमावत को वहाँ की अव्यवस्थाओं के बारे में बताया था। जिसका ज़मीर ज़िंदा है वह ऐसी परिस्थिति में मुंह तो नहीं मोड सकता। इनके अलावा एक और है जो इन्हीं की तरह है, रेल्वे का जनरल मैनेजर रति पांडे जो तमाम प्रोटोकॉल को धता बता लोगों को बचाने निकल पड़ता है। इन्हीं चार मुख्य पात्रों के इर्द-गिर्द कहानी बुनी गई है जिनमें इफ़्तेखार और रति पांडे असल पात्रों से लिए गए हैं जबकि इमाद और बलवंत काल्पनिक हैं। हक़ीक़त और अफसाने को मिलाकर बनाई गई इस कहानी को देखकर लगता ही नहीं कि इसमें लेखक ने कल्पना से कुछ जोड़ा है, सब कुछ प्राकृतिक रूप से घटित लगता है। यही बात इसके लेखन को आला दर्ज़े का साबित करती है। cinematic liberty किसी भी असल कहानी को फ़िल्म रूप देने के लिए ज़रूरी होती है। भावनाओं को उभारना होता है, उन्हें दर्शकों के दिल में उतारना होता है और इस लिबर्टी का बिलकुल भी नाजायज़ फायदा नहीं उठाया गया है इस सिरीज़ में वरना इस लिबर्टी के नाम पर कई कहानियाँ अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाती हैं। 

पूंजीपति का लालच, प्रशासन की ढिलाइ, उसका भ्रष्टाचार सब कुछ अब भी वैसा ही है। पर हर दौर में कुछ लोग होते हैं जो दूसरों के लिए कुर्बान होने का जज़्बा रखते हैं। दर असल यही लोग दुनिया को थामे हुए हैं, शेष नाग शायद इन्हीं का प्रतीक रूप है। 




के के मेनन और मनोज वाजपई आज के दौर के नसीर और ओम पुरी हैं। के के मेनन ने हाल ही में जितनी तरह के किरदार निभाए हैं और जितनी खूबसूरती से निभाए हैं वो अचंभित करता है। एक तरफ “फ़र्जी” का वो stylish डॉन और दूसरी तरफ़ बिलकुल मामूली स्टेशन मास्टर इफ़्तेखार और दोनों किरदारों को ऐसे निभाया गया है कि लगता है ये आदमी इसी के लिए बना था। ये 360 डिग्री शिफ़्ट बहुत ही कम अभिनेताओं के बस की बात होती है। ये भी अजब संयोग है कि इसी विषय पर 1999 में "भोपाल एक्सप्रेस" के नाम से फ़िल्म बनी थी जो के के मेनन की बतौर हीरो पहली ही फ़िल्म थी। 

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 माधवन के पास हालांकि बहुत ज़्यादा कुछ नहीं था करने को लेकिन मुख्य धारा के हीरोज़ में वे उनमें से एक हैं जिन्हें एक्टर कहा जा सकता है। बाबिल खान ने इमाद के रोल में साबित कर दिया कि विरासत को वे और आगे ले जाने की कूवत रखते हैं। किरदार की बारीकियों को उन्होने खूब पकड़ा है, भोपाली लहज़ा भी। दिव्येंदु धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ते अब अपनी अच्छे अभिनेता के तौर पर पहचान बना चुके हैं। जब “प्यार का पंचनामा” फ़िल्म मैंने देखी थी तो तीन में से यही एक एक्टर मुझे अच्छा लगा था। इसमें काफी संभावनाएं दिखीं थीं। विडम्बना देखिये कि जिस कार्तिक आर्यन को मैंने कमजोर अभिनेता कहा था वो आज स्टार है। वो स्टार है और दिव्येंदु एक्टर है। ये खाई शुरू से अब तक रही है। जुही चावला किसी ज़माने में crush रही हैं, उन्हें देखकर अच्छा लगता है। सनी हिंदूजा आजकल लगातार नज़र आ रहे हैं और वे काफी प्रभावी भी हैं। 

पहले एपिसोड में के के अपने बेटे की यूनियन कार्बाइड में नौकरी करने की इच्छा पर कहते हैं कि “उनके साथ काम करोगे जिंनका न कोई ईमान है, न काम करने का तरीका”। अब कहाँ ऐसे बाप होते हैं जो इस आधार पर बेटे को अच्छी तनख़्वाह वाली नौकरी ठुकराने को कह सकें? अब तो पैसा जिधर से, जैसे आए ठीक है। एक जान न बचा पाने पर किसकी नींद बरसों के लिए उड़ जाती है? अब तो मौतों को क्रिकेट के विकेटों की तरह गिना जाता है। 

मुसीबत आने पर कौन हिन्दू रहता है? कौन मुस्लिम? कौन सिख, कौन ईसाई? क्या गैस हिन्दू फेफड़ा या मुस्लिम फेफड़ा देखती है? यही आपदाएँ हैं जो हमारे इन विभाजनों को बेमानी साबित करती हैं पर हम मूरखों की तरह अपने खूँटों को पकड़े बैठे रहते हैं। ख़ैर, बात बहुत लंबी हो गई। 

अंत में इतना कहूँगा कि जब यश राज फ़िल्म्स ओटीटी पर इतना अच्छा कुछ रच सकता है तो बड़े पर्दे पर मूर्खताएं परोसते रहने की क्या मजबूरी है? क्या उन्हें थिएटर में जाने वाले दर्शक मूर्ख लगते हैं और टीवी पर देखने वाले बुद्धिमान? क्या फोर्मूले के साथ कुछ सार्थक नहीं रचा जा सकता? रचा गया है पर नीयत चाहिए, लोग चाहिए, सही सलाहकार चाहिए और हाँ, उन सेल्स वालों को लाट मार कर भगाया जाना चाहिए सबसे पहले। 

जिन्होने “द रेल्वे मैन” न देखी हो, तुरंत देखें। हिन्दी में ऐसा कंटैंट बहुत कम बनता है। 

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टिप्पणियाँ

  1. यही है असली "मन की बात" ,जो आपने ने लिख दी-मेरे मन की बात☺️

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