क्या आपने 'संकट सिटी' देखी है?





अक्सर ऐसा होता है कि बड़ी फिल्मों के शोर में कम बजट की अच्छी फिल्में दब जाती हैं. ऐसी ही एक फिल्म पिछले दिनों आई थी जो लव आजकल के बेजा शोर में कब आई और चली गई पता ही नहीं चला. ये फिल्म थी 'संकट सिटी', शायद ज़्यादातर लोगों ने इसे नोटिस भी नहीं किया होगा लेकिन आज हम बात करेंगे उसी के बारे में क्योंकि ऐसी इमानदार कोशिशें व्यर्थ नहीं जानी चाहिए. मल्टीप्लेक्स ज़माने का एक फायदा तो ज़रूर हुआ है कि कम लागत की अच्छी फिल्मों को मौका भी मिलता है, दर्शक भी मिलते हैं और कभी-कभी बड़ी सफलता भी मिलती है. इसका सबसे अच्छा उदाहरण है - 'भेजा फ्राई'. संकट सिटी भी फिल्मों के भेजा फ्राय तबके से ही ताल्लुक रखती है. फिल्म में कोई बड़ा स्टार नहीं है, बहुत अच्छा संगीत नहीं है बल्कि गीत इसमें हैं ही नहीं, लेकिन फिल्म दर्शकों का मनोरंजन करने में कामयाब है.

फिल्म का प्रमुख किरदार है गुरु(के के मेनन)जो कारें चुराता है. गनपत(दिलीप प्रभावलकर) का एक टूटा-फूटा कार गैरेज है जहाँ ये दोनों मिलकर चुराई हुई कार को नया रंग-रोगन दे कर बेच देते हैं. एक बार गुरु को एक मर्सिडीज कार मिलती है जिसमे चाबी लगी हुई है लेकिन उसके आस-पास कोई नहीं है. वो उसे चुरा लेता है. गैरेज में पता चलता है कि कार में एक करोड़ रुपये रखे हैं. गुरु और गनपत ख़ुशी से पागल हो जाते हैं लेकिन उन्हें नहीं पता है कि ये बुरे दिनों की शुरुआत है क्योंकि कार और पैसा दोनों एक डॉन फौजदार(अनुपम खेर)के हैं. फिर शुरू होता है चूहे-बिल्ली का खेल. फौजदार लोगों को ब्याज पर पैसा उधार देता है. वो गुरु को पकड़ लेता है और पैसा लौटाने के लिए 1 हफ्ते की मोहलत देता है. इस बीच गनपत उस पैसे को कहीं छुपा देता है और गुरु को बताने के पहले ही सर में चोट लगने से उसकी याददाश्त चली जाती है. अब गुरु को खुद ही कहीं से पैसों का इंतज़ाम करना है. दूसरी तरफ एक बिल्डर(यशपाल शर्मा) है जिसे फौजदार के 2 करोड़ रुपये लौटाने हैं. वो अपनी ज़मीन एक फिल्म प्रोड्यूसर(मनोज पाहवा) को बेच देता है. ज़मीन खरीदने के लिए प्रोड्यूसर फौजदार से ही पैसे उधार लेता है जिसे गुरु चुरा लेता है. इस तरह तीन कहानियां आपस में जुड़ जाती हैं. एक घटना से दूसरी पैदा होती है, दूसरी से तीसरी…यूँ लगता है जैसे फिल्म खुद-बा-खुद आगे बढ़ रही है. निर्देशक पंकज आडवाणी की ये पहली ही फिल्म है लेकिन उनका निर्देशन प्रभावित करता है.

के के मेनन आज के समय के एक बेहतरीन अभिनेता है, उनका स्क्रीन प्रेजेंस ज़ोरदार है. इस फिल्म में पहली बार उन्हें कॉमेडी करते हुए देखा और कहना होगा कि इस बार भी उन्होंने कमाल ही किया है. 


अनुपम खेर अपने नाम को हमेशा सार्थक करते हैं, एक बार फिर उन्होंने मैदान मार लिया. रीमा सेन एक अच्छी अभिनेत्री है लेकिन उसे इंडस्ट्री में वो मुकाम नहीं मिला है जिसकी वो हक़दार है. फिल्म के सभी कलाकार अपने-अपने किरदार में फिट हैं, ऐसा लगता है जैसे हरे एक किरदार ने खुद ही अभिनेता को चुना है.

बारी आती है संवाद की जो एक हास्य फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण अंग है. संवाद अच्छे हैं और चुटकियाँ दर्शक को हसाने में कामयाब है लेकिन कहीं-कहीं दर्शक को जबरदस्ती गुदगुदी करने की कोशिश की गई है जो हास्य फिल्म लिखने का सबसे बड़ा खतरा होता है क्योंकि ऐसे संवाद हसाने की बजाय चिढ पैदा करते हैं.हालांकि ऐसे संवाद बहुत नहीं हैं इसलिए उन पर ध्यान नहीं जाता.

हास्य फिल्में दो तरह की होती हैं एक, बिना दिमाग वाली(जो मेरे ख़याल से तो हास्य फिल्में होती ही नहीं हैं लेकिन लोग ऐसा मानते हैं) और दूसरी दिमाग वाली….पहली तरह की फिल्मों पर आजकल अक्षय कुमार का एकाधिकार है जो ऐसी वाहियात फिल्में करने के बाद भी सबसे मंहगे अभिनेता हैं…ये फिल्म दूसरे वर्ग में आती है. विषय अच्छा है और उसका प्रस्तुतीकरण भी अच्छा है. बेशक फिल्म भेजा फ्राय के स्तर तक नहीं पहुच पाई लेकिन फिर भी एक बार ज़रूर देखी जानी चाहिए.

Also Read: गुप्त रोग विशेषज्ञ



5 में से 3 अंक दिए जाने चाहिए

टिप्पणियाँ

  1. आपकी ये समीक्षा पढ़कर अब लग रहा है कि ये फ़िल्म देखनी चाहिए। लेकिन, समस्या यही है कि ये भीड़ में कही खो जाती है।

    जवाब देंहटाएं
  2. मैने यह फ़िल्म देखी है और कहूँगा कि.. खोसला का घोसला के बाद २ सालों मे सबसे बेहतरीन हिंदी हास्य फ़िल्म लगी यह मुझे..के के मेनन ने तो हर फ़िल्म मे सेंचुरी मारने की आदत बना ली है..मगर फ़िल्म का सबसे मज्बूत पक्ष जो मुझे लगा वह हर छोटे-बड़े पात्र का कमाल का अभिनय चाहे वह अनुपम खेर, यशपाल शर्मा या रिमी सेन हों या फ़ौजदार का ड्राइवर, गुरू जी या फ़िल्म प्रोड्यूसर का असिस्टेन्ट..बेहतरीन

    जवाब देंहटाएं
  3. बेहतरीन हिंदी हास्य फ़िल्म है....

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

लोकप्रिय पोस्ट