बंदिश बेण्डिट्स (Bandish Bandits) - एक अद्भुत, और साहसिक प्रयास
Bandish Bandits - शंकर-एहसान-लॉय का अद्भुत संगीत
पहली बार जब पता चला था कि ऐसी कोई सिरीज़ आ रही है तो कोई ध्यान नहीं दिया था क्योंकि संगीत को केंद्र में रखकर कोई ढंग का काम अब तक हुआ नहीं है। फिर आज के दौर को देखते हुए मुझे लगा था कोई सतही सिरीज़ होगी जिसमें बैक्ग्राउण्ड संगीत को रख दिया है।
फिर शंकर-एहसान-लोय का नाम सुनकर संगीत सुना जिसके बारे मे मैं पहले ही लिख चुका हूँ पर सिरीज़ देखने के बाद संगीत और भी ज़्यादा सर चढ़ गया है। अद्भुत काम है।
सबसे पहले तो आनंद तिवारी को साधुवाद क्योंकि वीभत्स रस की प्रधानता वाले युग में शास्त्रीय संगीत को केंद्र में रखकर कहानी बुनना साहस का काम है, और इतनी अच्छी तरह उसे पेश करना जबर्दस्त प्रतिभा का काम है। मैंने जब इसे देखना शुरू किया था तो मेरा mindset नेगेटिव था, बल्कि 2-3 episodes तक ऐसा ही रहा पर कहानी ने मुझे बांध लिया था। नेगेटिव होने के बावजूद मेरे हाथ अपने आप उसे प्ले कर देते थे कि अगले एपिसोड में क्या है। मेरे नेगेटिव होने का एक कारण नायिका भी थी जो मुझे घोर नापसंद आई थी। लेकिन सिरीज़ ख़त्म होते-होते स्वीकार्य हो जाती है।
नसीरुद्दीन शाह और अतुल कुलकर्णी, बंदिश बेण्डिट्स (Bandish Bandits) के दो दिग्गज
नसीर साहब और अतुल कुलकर्णी दो बड़े कारण थे इसे देखने के और वाकई में इन्हें देखना एक अनुभव होता है। ये नसीर साहब की महानता है कि जब पात्र से प्रेम करवाना हो तो वो करवा लेते हैं और जब नफरत करवाना हो तो वो भी करवा लेते हैं उसी कैरक्टर में रहते हुए। सिरीज़ में संगीत भी एक पात्र है, बल्कि मुख्य किरदार है....बाकी सभी किरदार उसके इर्द-गिर्द हैं। पंडित राधे मोहन राठोड़ का संगीत घराना है जिसमें वे परंपरागत तरीके से संगीत की शिक्षा देते हैं। उन्हीं का पोता उनका शिष्य है जो कहानी का नायक है। उसी के अपने घराने की विरासत को संभालने की यात्रा है ये कहानी जिसमें कई परतें हैं...हर पात्र का अपना एक अतीत है, अपनी कहानी है।
बंदिश बेण्डिट्स (Bandish Bandit) में शास्त्रीय संगीत का अद्भुत प्रयोग
पॉप और शास्त्रीय संगीत के मुक़ाबले से शुरू हुई कहानी शास्त्रीय संगीत के समंदर में उतर जाती है और उसकी महानता, विराटता के दर्शन करवाती है। काफी शालीनता से आज के दौर के संगीत(?) और गायकों को उनका कद दिखा दिया गया है। समंदर, समंदर ही रहेगा...नदियाँ, नाले उसे तुच्छ साबित नहीं कर सकते। तिवारीजी ने इसके लिए SEL को चुनकर अपनी संगीत की समझ का परिचय दिया है। कमाल का संगीत रचा गया है। मेरा खयाल है राधे के किरदार को जो आवाज़ दी गई है वो शंकर महादेवन के पुत्र शिवम की है। कहना होगा कि क़ाबिल पिता ने अपने पुत्र को सही तालीम दी है। एक और आवाज़ जो राधे के लिए ली गई है, वो है जावेद अली की। जावेद की बदकिस्मती ये रही कि उन्होने उस दौर में फ़िल्मों में प्रवेश किया जब संगीत फ़िल्मों से विदा हो रहा था। खुरदरी और एक सी आवाज़ों से बाज़ार पटने लगा था। शास्त्रीय संगीत तो दूर, गीतों से मेलोडी भी नदारद हो गई थी। ऐसे में उनके लिए मौके सिर्फ रहमान के पास थे, पर उनका खुद का काम हिन्दी में बहुत कम हो गया था। इस सिरीज़ में जावेद अली ने खुलकर अपनी रेंज दिखाई है। काश, फ़िल्मी दुनिया उनकी आवाज़ का सही इस्तेमाल कर पाये।
अतुल कुलकर्णी को शंकर महादेवन ने खुद आवाज़ दी है और उनके बारे में तो क्या कहा जाये? संगीत उनकी नसों में बहता है जैसे। नसीर साहब को पंडित अजोय चक्रवर्ती ने आवाज़ दी है।
सिरीज़ कुछ हद तक उन लोगों में शास्त्रीय संगीत के लिए रुझान पैदा करेगी, जो उससे अंजान हैं। जो लोग पहले ही उसे पसंद करते हैं, उनके लिए तो बार-बार देखने की चीज़ है। मैंने अपने लिए तो बहुत कुछ सीखा इसे देखकर। अनुशासन और गुरु संगीत के लिए निहायत ही ज़रूरी है।
जो लोग शास्त्रीय संगीत से बिलकुल अनभिज्ञ हैं उन्हें बेसिक जानकारी रागों की लेनी चाहिए, फिर उसे सुनना एक अलग ही अनुभव होता है। मैं जितना गहरे उतरता जा रहा हूँ एक अलग ही, एक अद्भुत दुनिया नज़र आती है। अलौकिक किसे कहते हैं ये समझ आता है जब आप संगीत की उस गहराई का आनंद उठाने की समझ पैदा कर लेते हैं। हालाँकि मैं अब भी सिक्खड़ हूँ, और भी बहुत कुछ जानना है। पता नहीं कैसा अनुभव होता होगा उन्हें जो इसे पूरी तरह समझते हैं।
मैं recommend करता हूँ कि इसे मिस न करें। ज़रूर, ज़रूर देखें। ऐसे कामों को दर्शकों का प्रतिसाद मिलेगा तो बनाने वाले भी इस तरफ भागेंगे। फिलहाल जहां अधिक से अधिक घिनौना दिखाने की होड़ चल रही है वहाँ ऐसा उत्कृष्ट कार्य देखकर वाकई खुशी होती है।
ऋत्विक भौमिक ने संगीत के साधक के किरदार के लिए अच्छी मेहनत की है। कैसे एक गायक रियाज़ करता है वो सीखा है पर भावुक दृश्यों के लिए अभी बहुत मेहनत की ज़रूरत है। नायिका ठीक है, जैसा हॉट और सुंदर उसे कहा गया है वैसी नज़र नहीं आती। अभिनय ठीक है। बाकी पात्र सभी बढ़िया हैं। गालियों का प्रयोक अनावश्यक था। मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि तिगमांशु धूलिया ने पान सिंह तोमर में कोई गाली नहीं रखी जबकि भयंकर स्कोप था उसमें गालियों का मगर फिर भी उसके प्रभाव में रत्ती भर भी कमी नहीं आई। जब उस फिल्म में बिना गाली काम हो सकता था तो फिर इसका तो विषय भी नहीं था वैसा।
कुछ कमियाँ ज़रूर हैं पर उन्हें नज़र अंदाज़ किया जा सकता है।
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बढ़िया समीक्षा से एक नहीं बल्कि दो कदम आगे ।
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया :)
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