प्रेमाची गोष्ठ - प्रेम की प्यारी कहानी


 

सबसे विवादास्पद विषय है, सबसे पुराने समय से ही लेकिन आज तक जारी है। मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि यही एक ऐसी परंपरा है जो पूरी दुनिया में पाई जाती है। कैसे दुनिया भर के लोगों ने समझा कि यही करना ज़रूरी है? नहीं समझे क्या करना? अरे शादी। 

दुनिया के हर कोने में, हर धर्म में स्त्री और पुरुष के बीच यही एक मान्य रिश्ता है। 

कई तरह की बहसें चलती हैं, जैसी कि एक प्रिय मित्र ने कुछ दिनों पहले ही उठाई थी कि शादी करनी ही क्यों? तो एक तो ये बहस हुई। फिर तय हो गया कि करनी है तो दूसरी बहस पैदा होती है – अरेंज या लव?

मेरे हिसाब से ये वाली बहस तो बचकानी ही है। दोनों में से कोई भी सिस्टम गारंटी नहीं दे सकता कि शादी सफल होगी ही या असफल ही होगी। कई प्रेम विवाह देखे हैं जिनमें प्रेम बाल बराबर भी नज़र नहीं आता और कई अरेंज मैरिज देखी हैं जिनमें प्यार ही प्यार दिखता है। बहुत सी कमियाँ हैं इस शादी नाम की संस्था में लेकिन हजारों वर्षों में भी इसका कोई इससे बेहतर विकल्प समाज ढूँढ नहीं पाया है।

शादी न करना भी विकल्प नहीं है। शादी नहीं करने वाला बाल-बच्चों वालों का जीना किस तरह हराम कर देता है हम देख ही रहे हैं।  😃 

इस फिल्म की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। मेरा मतलब है, ये वाला सवाल तो नहीं उठाती पर प्रेम और विवाह के बारे में ही बात करती है। 

मैं जब कोई फिल्म देख रहा होता हूँ, फिल्म खुद अपने बारे में लिखने को कहती है। मेरा पैमाना बड़ा सरल है। फिल्म दिल तक पहुँचती है या नहीं? अगर पहुँचती है तो फिल्म देखते-देखते ही शब्द उठने लगते हैं और वाक्य बनने लगते हैं। 

“प्रेमाची गोष्ठ” आधी होते-होते अंदर शब्दों के बवंडर उठने लगे थे। जो चीज़ दिल तक पहुंची उसे काग़ज़ पर आने की जल्दी होने लगती है। 

एक शब्द में कहें तो “बहुत स्वीट”, “बहुत प्यारी” फिल्म है। लंबे अरसे के बाद कोई अच्छी प्रेम कहानी देखी है, बल्कि प्रेम कहानी ही देखे हुए अरसा हो गया था। अफ़सोस ये है कि ऐसी फ़िल्में अब हिन्दी में नहीं बनती। या अगर हाल ही में कोई बनी हो और मुझे जानकारी नहीं है तो मुझे ज़रूर बताएं। इतनी सारी हिंसक कहानियाँ देख चुका हूँ कि अब तो भरोसा ही नहीं होता कि दुनिया में कोई आदमी “राम” भी हो सकता है। 

जी हाँ, राम ही है मुख्य किरदार इस फिल्म का जो अपने नाम को चरितार्थ करता है। राम एक फिल्म लेखक है जो रिमेक फ़िल्में लिखता है। उसका सपना है कि उसकी अपनी आरिजिनल कहानी पर फिल्म बने। फिल्म की शुरुआत होती है कोर्ट से जहाँ उसका अपनी पत्नी रागिनी के साथ तलाक़ का मामला चल रहा है। रागिनी अब साथ रहना नहीं चाहती, पर राम को विश्वास है कि वो एक दिन वापस आ जाएगी। उसी जगह एक दिन राम की मुलाकात सोनल से होती है, जब रागिनी कोर्ट में आने और counselling से इंकार कर देती है। सोनल का भी अपने पति से तलाक होने वाला है, उसके शादी को लेकर खयालात अच्छे नहीं हैं। 

कहानी के बारे में ज़्यादा नहीं बताऊंगा, बस इतना ही कि संयोग कुछ ऐसा बनता है कि ये पात्र कहीं न कहीं एक दूसरे की ज़िंदगी में दखल देते हैं और इन सारे पात्रों की भावनाएँ आपस में उलझ जाती हैं। राम जिस तरह का चरित्र है, वो उसे और ज़्यादा उलझाता जाता है। राम की माँ का एक अच्छा संवाद है जब उसकी अच्छाई देखकर वो उसे कहती है – मैंने तुझे जो नाम दिया तू तो बिलकुल वैसा ही हो गया?

राम एक सीधा, सरल, भावुक इंसान है। भावनाओं और व्यवहार में हद दर्जे का ईमानदार। ये कह सकते हैं कि आजकल जो प्रजाति दुर्लभ है, वो उसी में से एक है। 

इस तरह की कहानियों में घटनाएँ नहीं, भावनाओं का सम्प्रेषण ज़्यादा महत्वपूर्ण होता है। इस मायने में फिल्म खरी उतरती है। बारीक बातों का ध्यान रखा गया है। सबसे अच्छी बात मुझे ये लगी कि इसमें किरदारों की आँखें बोलती हैं। कई जगह शब्द नहीं हैं, बस आँखें हैं, जो कह जाती हैं जो भी कहना है। ये काम करवाने के लिए एक्टर भी उस स्तर का चाहिए। अतुल कुलकर्णी निर्विवाद रूप से आज के दौर के बेहतरीन अभिनेताओं में एक है। अपने किरदार के साथ पूरी तरह से एकमेव हो जाना जिन थोड़े से अभिनेताओं की ख़ासियत है, वे उन्हीं में से एक है। मैंने पहली बार उन्हें फिल्म “दम” में देखा था जिसमें वे विवेक ओबेरॉय के सामने मुख्य खलनायक थे। आज अगर उस फिल्म का कुछ याद है तो अतुल कुलकर्णी के किरदार का आतंक। उस फिल्म में उन्होने आतंक पैदा किया था, इस फिल्म में प्रेम। दोनों ही कमाल। अफ़सोस की बात है कि हिन्दी फिल्मों के पास उनके लिए किरदार नहीं हैं। “बंदिश बेण्डिट्स” में ज़रूर बढ़िया किरदार था। 

सागरिका घाटगे को जैसे ही मैंने स्क्रीन पर देखा मुझे खयाल आया कि आजकल इतने लंबे चेहरे वाली अभिनेत्रियाँ क्यों आ रही हैं? एक दौर था जब गोल चेहरा पसंद किया जाता था। चेहरे का ये लंबा  ढाँचा भारतीय नहीं लगता। हाल ही में वेब सिरीज़ “एस्पायरेंट्स” देखी, उसमें भी हीरोइन का चेहरा इसी तरह का है। शायद कटरीना कैफ ने ये राह बनाई है और शायद इसीलिए मुझे लगा था कि ये लड़कियां मॉडेल होती हैं, अभिनय नहीं कर सकतीं। पर फिल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती गई, मेरी धारणा गलत साबित हुई। सागरिका ने किरदार को बहुत संवेदनशीलता के साथ निभाया है। नायिका के मन का अंतर्द्वन्द्व, उसका दर्द बाक़ायदा नज़र आता है। 

रागिनी का किरदार सुलेखा तलवलकर ने निभाया है। सभी ने भी अभिनय अच्छा ही किया है। हालाँकि बहुत कम पात्रों में पूरी फिल्म बन गई। प्रेम त्रिकोण के तीन लोगों के अलावा, नायक की माँ, उसका दोस्त और नायिका की दोस्त। ये मुख्य किरदार हैं और इनके अलावा 2 या तीन ही और लोग हैं। रोहिणी हत्तंगड़ी को बहुत समय बाद स्क्रीन पर देखा, हमेशा की तरह सहज। नायक के दोस्त का किरदार खुद फिल्म के निर्देशक सतीश राजवाड़े ने ही निभाया है, जो इसके लेखक भी हैं। उन्होने सुरुयात बतौर एक्टर ही की थी गोविंद निहलानी की फिल्म "हज़ार चौरासी की माँ" से। उसके बाद फिल्म "वास्तव" में अभिनय किया और सन 2000 से निर्देशन के क्षेत्र में कदम रखा।

कुछ कमियाँ हैं पर उन्हें नज़र अंदाज़ किया जा सकता है। जैसे फिल्म की जो कहानी राम लिखता है वो असल कहानी को आसान बना देती है, conflict से निकालने का रास्ता लगती है। conflict को किसी और तरह सुलझाया जाता तो अच्छा होता। किरदार कम रखने की कोशिश में कुछ back stories दिखाई ही नहीं गई हैं। जितने भी घर दिखाये गए हैं, सबमे रहने वाले लोग अकेले ही हैं, उनका कोई परिवार नहीं है, क्यों नहीं है, ये आपको ही समझना है। 

डाइलॉग अच्छे हैं। बहुत कम characters और locations में ही फिल्म पूरी हो जाती है इसलिए बजट भी कम ही होगा। इस तरह की फिल्मों के लिए हिन्दी में प्रोड्यूसर मिलना बहुत मुश्किल है। इसे देखकर मेरा भी मन किया कि मराठी फिल्मों की तरफ़ मुड़ जाऊँ। मराठी में अब भी अच्छी फिल्में बन रही हैं। 

गीत कुछ खास नहीं हैं। संगीतकार ने सन 2000 के आसपास के हिन्दी गीतों की खिचड़ी बनाई है। शुरुआत में जो instrumental track है वो दिल चाहता है के “कोई कहे कहता रहे से” सीधे उठा लिया है। 

फिल्म अमेज़न प्राइम पर उपलब्ध है।  अगर देखें तो इस पोस्ट पर कमेंट ज़रूर करें। 

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