खुफ़िया - कई परतों में कही गई कहानी

 


सदियों पुराना मनुष्य का इतिहास है लेकिन मनुष्य है कि इस इतिहास से सीखने का नाम ही नहीं लेता। पहले कबीले हुआ करते थे, ये कबीले एक-दूसरे की जान के प्यासे होते थे। कभी खाने के लिए, कभी ज़मीन के लिए, कभी शक्ति के लिए। फिर मनुष्य सभ्य (?) हुआ, राजतंत्र आया। अब मनुष्य सलीके से रहने लगा लेकिन अंदर की आदिम प्रवृत्तियों का क्या करे? तो शक्ति और धन के लिए संघर्ष जारी रहा। अब कबीले बड़े होकर राज्य का रूप ले चुके थे। इस तंत्र का भी अंत आया। लोकतन्त्र का उदय हुआ, मनुष्य और भी सभ्य, और उदार कहलाने लगा। राज्यों की जगह देशों ने ले ली। अच्छी परिकल्पना थी, एक ही भू-भाग के, एक ही संस्कृति में जन्मे लोग एक साथ रहें, खुश रहें लेकिन डीएनए में वो युग अब भी ज़िंदा है। अब भी ये सारे देश एक दूसरे को कंट्रोल करने की कोशिशों में लगे रहते हैं। कमज़ोर देश ताकतवर देशों का खिलौना बने रहते हैं। वहाँ किसका राज होगा, कैसी नीतियाँ होंगी ये बाहर से तय होने की कोशिशें होने लगीं। तो एक तरफ़ दूसरे देशों को कंट्रोल भी करना है और दूसरी तरफ़ किसी और को कंट्रोल न करने देने की व्यवस्था भी करनी है, इसी के लिए हर एक देश में खुफ़िया एजेन्सीस की ज़रूरत हुई। ख़ून-खराबा जो पहले आमने-सामने होता था, अब पूरी प्लानिंग के साथ खुफ़िया तरीकों से होने लगा, पर इंसान का ख़ून बहना जारी है। 

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इसी स्थिति पर फिल्म में एक बहुत अच्छा संवाद है जब वामिक़ा गब्बी तबु से पूछती है कि आप लोग ये ख़ून-खराबा क्यों करते हैं? अपने आप से नज़रें कैसे मिला पाते हैं? तबु का जवाब होता है “तुम्हारे पिताजी आर्मी में थे ना? कभी उनसे ये सवाल किया है? इसके जिम्मेदार हम सब हैं, तुम भी और मैं भी”। बहुत गहरी बात है पर गहरा किसे समझना है साहब। हाल ही में राजस्थान में एक हत्या हुई थी, जनता उस पर आक्रोशित हुई और seriously मांग करने लगी कि जिसने मारा है उसे फांसी दो। जनता के लिए अब मरना-मारना खेल हो गया है। हम फिर से कबीलों की तरह हो रहे हैं। महाराष्ट्र में यूपी वालों पर हमला यही साबित करता है। 

ख़ैर, हम फिल्म की बात करते हैं। पता नहीं क्यों इस फिल्म की कोई चर्चा नहीं हुई, हुई भी तो शायद समीक्षकों  ने इसे खारिज किया था। फ़िल्म पर विशाल भारद्वाज के हस्ताक्षर नज़र आते हैं। उन्हीं का तरीका है, बहुत सी गहरी बातों को खामोशी से या सिर्फ़ भावों से कह देना। खुफ़िया किसी एक किरदार की कहानी नहीं है, ये हर उस व्यक्ति की कहानी है जो दुनिया से, यहाँ तक कि अपने परिवार से भी छुप कर देश के लिए काम कर रहा है। फ़िल्म एक सरल कहानी भी नहीं हैं जहां एक देशद्रोही है और कुछ देशप्रेमी जो उसे पकड़ने में लगे हैं। कई परतों में कहानी खुलती है। जो बुरा है वो भी बुरा नहीं है, फ़िल्म ब्लाक अँड व्हाइट में किरदारों को विभाजित नहीं करती। हर किरदार का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है, और सटीक है। फ़िल्म का केंद्रीय किरदार है केएम जिसे तबु ने निभाया है, उनके बाद फ़िल्म किसी की ही तो वामिक़ा की है। वे नई पीढ़ी की बेहतरीन खोज हैं। शायद इसीलिए विशाल भारद्वाज ने उन्हें खुफ़िया और फ़िर चार्ली चोपड़ा में मुख्य भूमिका में लिया है। खूबसूरत तो वे हैं ही और उतनी ही जबर्दस्त अदाकारा हैं। 

मेरी आरज़ू कमीनी

फ़िल्म की कहानी एक डबल एजेंट को ढूँढने और फ़िर पकड़ने की है पर उसके साथ ही कई और उप कथानक भी हैं जो इसे गहराई देते हैं। एक बाबा भी जिसका किरदार इंडियन ओशन के राम ने निभाया है। अच्छा आदमी एक myth हो गया है, अब हम सब जानते हैं कि धर्म भी धंधा है। अच्छा आदमी उसी तरह हाशिये पर है जैसे इस कहानी में तबु का पति है जिसे अतुल कुलकर्णी ने निभाया है। तबु कहती हैं “he is a nice man”। पर इस नाइस मैन के करने को यहाँ कुछ नहीं है। तबू अद्भुत अभिनेत्री हैं, ये बात कहना भी अब दोहराव है। आशीष विद्यार्थी हमेशा की तरह अपने किरदार में फ़िट हैं। अली फज़ल ने भी अच्छा काम किया है। बांग्लादेशी अभिनेत्री अजमेरी हक़ छोटे से रोल में प्रभावित करती हैं। फ़िल्म की लंबाई 2 घंटे 39 मिनट है, जो थोड़ी कम हो सकती थी। पर इस लंबाई ने भी कभी ऊब पैदा नहीं की। 

विशाल भारद्वाज का संगीत हमेशा एक अतिरिक्त आकर्षण होता है लेकिन इस फ़िल्म में ऐसा कुछ नहीं है। 

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मुझे उनकी यही बात अच्छी लगती है कि फ़िल्म की गति धीमी होती है पर असर गहरा छोडती हैं। इस फ़िल्म में एक सेक्स सीन है अली फज़ल और वामिक़ा के बीच, इस सीन को जनता को आकर्षित करने के लिए  नहीं बल्कि वामिका के अंदर क्या चल रहा है ये दिखाने के लिए डाला गया है। जिसमें जब वो बिना आवाज़ के चीखती है तो आपको हिला देती हैं। 

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अंत में जब तबु अपने बेटे को फोन करती है तो सिर्फ़ फोन उठाने को ही दिखाया गया है, क्या बातें हुई ये नहीं बताया गया, सिर्फ़ एक extreme wide शॉट डाला गया है तबु का। ये उस संवाद से ज़्यादा प्रभावी है और एक अच्छा निर्देशक या लेखक शब्दों को बहुत ही किफायत से खर्च करता है। 

फ़िल्म आपने देखी हो तो कमेंट में अपने विचार भी रखें, न देखी हो तो ज़रूर देखें Netflix पर उपलब्ध है। 

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