भोला - जॉन विक का सड़ू वर्ज़न
ओ
भोलाssssssssssss
कोई
आदमी पूरी फ़िल्म में ऐसे चिढ़ा कर भाग जाता है, किसी के आउट dated नाम पर ऐसे मज़ाक उड़ान अच्छी
बात नहीं है।
वैसे
तो ये तमिल फ़िल्म “कैथी” की रीमेक है, पर मुझे ऐसा क्यों लगा कि इसका पूरा idea “जॉन विक” से लिया गया है।
जॉन विक में थोड़े सुगले लोग, ढेर सारा melodrama और धर्म का घालमेल करके जो कुछ अजीब सा
निकला वो है “भोला”। जॉन विक भी नहीं हँसता है,
भोला भी नहीं हँसता पर जॉन विक गंभीर लगता है और भोला सडू। जॉन विक बंदूक से धाँय-धाँय
करता राहत है और भोला हाथ से और अंशिएन्ट हथियारों से ही सबको ढेर कर देता है। जॉन
विक की ज़िंदगी में भी दर्द बीवी के मरने का है, भोला के साथ दर्द की घात 2 है, बीवी
के मरने का और बच्ची के अनाथाश्रम में होने का। जॉन विक के गुणगान अलग-अलग लोग करते
हैं, भोला का गुणगान एक ही आदमी जेल में बैठे-बैठे करता रहता है। ऐसा लगता है कि वो
पैदा ही भोला का महिमा मंडन करने के लिए हुआ है।
एक सीन जो जस का तस लिया है
जॉन विक से, वो है “ओपन कान्ट्रैक्ट” वाला। जॉन विक 2 में खलनायक उसके लिए ओपन कान्ट्रैक्ट
जारी करता है ऑनलाइन और शहर के हर गुंडे-बदमाश, टपोरी के पास मैसेज पहुँच जाता है।
ऐसे ही भोला में भी होता है। भोला को ढूँढने अतरंगी गुंडे घूमने लगते हैं और वो बंदा
अकेले सबको निबटाता चलता है।
कहानी अब क्या बताएं, कुछ है
ही नहीं। हजार करोड़ की ड्रग्स तब्बू पकड़ लेती है और एक खुफ़िया जगह पर छुपा देती है।
ड्रग्स के साथ 5 लोग भी पकड़े जाते हैं। ये बहुत बड़े गैंगस्टर का माल है जिसका छोटा
भाई अश्वत्थामा उर्फ़ आशु (दीपक डोबरियाल) सनकी आदमी है। आदमी को नाचते-गाते हथौड़े से
मार डालता है। हथौड़े से याद आया साला किसी भी गुंडे के पास बंदूक नहीं है, सब के सब
हथौड़ा, तलवार, हसिया, खुरपी लिए घूम रहे हैं। माननीय ने वाकई दसवीं शताब्दी में पहुँचा
ही दिया क्या देश? और दक्षिण भारत में तो चलो अभी साफ-सफाई, पानी पहुँचा नहीं है पर
इधर के गुंडे तो नहाते थे बी पहले? और ऐसे सांड जैसे गुंडे कब से होने लगे इधर? दक्षिण
का प्रदूषण पहुँच गया है। हाँ तो ड्रग्स के लिए आशु को तब्बू की तलाश है। इस चक्कर
में पुलिस वालों की पार्टी में सारे पुलिस वालों को एक खतरनाक दृग देकर बेहोश कर देता
है, पर चूँकि तब्बू ने पार्टी में पी नहीं थी इसलिए वो बेहोश नहीं होती और 40 पुलिस
वालों को ट्रक में लाद कर निकलती है। ट्रक चलवाती है भोला से जिसे पुलिस ने इसीलिए
पकड़ा था कि हम सब जब बेहोश हो जाएंगे तो ट्रक कौन चलाएगा?
भोला चूँकि फ़िल्म में विमल का पाउच नहीं रख सकता इसलिए पाउच में भभूत रखता है। और मारपीट से पहले उसे माथे पर लगाता है। ये आज के मूर्खता के स्वर्ण युग को कैश करने का स्टन्ट है। पूरी फ़िल्म में जितने गुंडे उसे मारने और थाना घेरने पहुंचते हैं उन्हें एक जगह बसाया जाए तो एक नया जिला बन सकता है। विनीत कुमार को गजब खूँखार गेट अप दिया है पर करवाया कुछ भी नहीं है आँखें फाड़कर घूरने के अलावा। इतने सारे लोग पटापट मरते जाते हैं पर कहीं कोई हल्ला नहीं होता, लाशें छोड़ आगे बढ़ जाते है। सबसे बाद झोल तो ये कि भोला उस पुलिस वाले को फोन पर बात करते सुन लेता है जो मुखबिर है फिर भी कुछ नहीं करता। अगर कुछ करना ही नहीं था निर्देशक महाराज तो वो सीन डाला ही क्यों? वही पुलिस वाला उसे पीठ में छुरा घोंपता है। उसे चाकू तलवार इत्यादि प्राचीन हथियारों के कई घाव लगते हैं और वो मरणासन्न हो जाता है पर फिर ऐसा खड़ा होकर सबको धोने लगता है जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। उसके बाद त्रिशूल से सारे लोग मार देता है। शिव की मूर्ति, भभूत, त्रिशूल.. ये सब आज के वक़्त को भुनाकर माल छापने की योजना है।
अच्छी
बातें – दीपक डोबरियाल। अपनी इमेज का पूरा मैक ओवर कर लिया है उन्होंने और क्या जबरदस्त
किया है। हास्य अभिनेता से खलनायक और वो भी खूँखार खलनायक पूरी विश्वसनीयता से निभाया
है। चेंज उनके व्यक्तित्व में भी आया है। कुछ दिनों पहले ही बरिस्ता में मेरे पीछे
वाली टेबल पर ही बैठे थे पर मैं एक नजर में पहचान ही नहीं पाया। सफलता की चमक और तेज
ही अलग होता है। दूसरा चेंज गजराज सिंह का है। उन्होंने भी बिल्कुल अलग ही किरदार निभाया
है। तब्बू के लिए कुछ खास नहीं था। vfx बहुत use किये हैं और नकली लगते हैं।
भोला जब गुंडों को मारता है तो उनकी हड्डियाँ टूट कर बाहर आ जाती हैं। ये हड्डियाँ
स्टील की लगती हैं।
कुल
मिलाकर बिना लॉजिक की फिल्म है, अगर देखने को कुछ भी न हो तो देख सकते हैं।
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सही समीक्षा। इतनी बकवास मूवी, वो भी अजय देवगन का direction। फालतू ही बैठे हैं लोग इंडस्ट्री में सच में
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